अहिंसा विवेक | Ahinsha Vivak

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Ahinsha Vivak by आचार्य श्री जिनचन्द्र सूरी जी - Aachary Shri Jinachandra Suri Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ७ }) - ' मान-स्तम्भ उसके जीवन ससुद्र का प्रकाश स्तम्भ वन गया 1 सूरज की किरणें जैसे भोस की बँदों को सोख लेती है ज्ञान की जआालोकः रदहिमयों ने गौतम के क्रोघ को गला दिया । सभामण्डप में विद्यमान तीथेंडूर वद्धमान महावीर की मंगल मुद्रा को वह एकटक देख रहा था, उसका ज्ञान-मद चूर हो गया । उसका हुदय श्रद्धा से जगमगा उठा ! आया था शास्त्राथं करने किन्तु शास्त्र के सभी दास्त्र ठण्डे पड़ गये । सच है, तन से पहिले जिनका मन तपस्वी बनता है, वे ही सच्चे तपस्वी है इस्द्रभुति ने शिष्यत्व ग्रहण कर लिया । इधर गौतम के क्रोध के ताले ट्टे, उधर मेष- गजंन जैसी दिव्य ध्वनि श्रोताओं के मन-धरती को सींचने लगी ¢ प्रतीक्षा सुफल हुई। सच्ची पात्रता के आगे ज्ञान का अखूट खजाना खुल गया । तीर्थंकर की वाणी ने धर्म संघ का धरातर प्राप्त किया । उस घर्मंसंघ ने, जिसमें संसार के समस्त छोटे-वडे, गरीब-अमीर,. राजा रक ओर्‌ ब्राह्मण-शूद्र को समान अधिकार धा। तीथेद्कुर महावीर के उपदेश सरल धे, आडम्बर और श्रौप- चारिकताओओं से कहीं दूर । वे जनता की भाषा में जनहित के लिए. होते थे--सरल, सुबोध और सुलभ । उनके उपदेशो में तत्व-दशेन तो था ही, सृष्टि रचना भोर सामाजिक तथा वैयक्तिक शंकां पर भी प्रकाश डाला गया था तत्कालीन धम्म, जीवन भौर जगत- की जिन गृढृताओं का समाधान नहीं दंड पाये ये, तीरथङ्कुर महावीर की दिव्य वाणी ने उन्हें सापेक्षता के पटल पर स्पष्ट किया । वहाँ न खण्डन था, न मण्डन बरनू उनकी वाणी की सत्य तक सीधी पहुंची थी । ' सच्ची रुचि, सच्ची पहिचान भर सच्चा आचरण | यही भगवान महावीर के उपदेशों का सार था! अहिखा, सत्य




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