सिद्धराज | Siddharaj

Siddharaj by श्री रामकिशोर गुप्त -shree ramkishor gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथस समे किन्तु सतुष्यत्व मेरे पुत्र का ही भाग है ; द्र अमरत्व मत रूप है नरत्व का + ओर प्रयुता तो अघुरत्वमें सी होती है ।* “जैसे न हो, थोड़े वही छाल ऐसी माई के । सेवा में रहे जो आपके-से सेवनीयो की , इष्या करने के योग्य उनका सुकृत है । आकपषण किन्तु जन्मसूसि का प्रबछ है । देदि, वह्‌ बन्धन भी है सम्बन्ध सवका 1 किन्तु यह देश तो है ऐसा, जहाँ बज को छोड के तुम्ारे सगवान थी पधारे थे !”” “देवि, वे हसारे ही नहीं थे, आपके भी थे । सानती हूँ यह भी मे, वाहर निकठके ब्रज के गोपाल द्वारका के धनी होते है । होती घर बेठने से उन्नति नहीं कभी ; दिद्व परिदार हे उदार इृत्तवालों का ; रास को अयोध्या सदा राम के ही साथ है । तो भी देवि, सेवाएँ हमारी, जो नगण्य है , अर्पित उन्हीं के लिए हो चुकी हैं पूं ही ; १३




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