सृष्टिवाद और ईश्वर | Shrishtiwad Aur Ishwar

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Shrishtiwad Aur Ishwar by मुनि श्री रत्नचन्द्रजी महाराज - Muni Shree Ratnachandraji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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# भूमिका 49 से एकमत नहीं है । इससे झ्ागे जाकर यह मी कहा जा सकता दै कि जगतू की आदि अद्यावधि कोई भी, निर्णीत नदह्दीं कर सका हे । < न यदि एक वेद्‌ की वात करे तो, उससे भी खृष्टिके सर्धघ के अनेक वाद प्रचलित हुए है । एक वाद अनेक देवों ने यह जगत्‌ उत्पन्न करिया दै, तथा अनेक हो इसकी रन्ता करते. दै, ऐसा कहता है । दूसरा वाद त्य मे से जगत्‌ के उत्पन्न होने की बात कहता है । तीसरा बाद नह्य की जगह इन्द्र को कत्तॉरूप में सानता है । चोथा वाद्‌ इन्द्र के स्थान पर ईश्वर को छोड़कर उसको शुण विशेष से युक्त एक प्रकार की व्प्राह्मा की कल्पना करता हे । पॉचवोंँ वाद्‌ प्रकृति तथा पुरुष को जगत्‌ के आदि कारण रूप कहता है । वेदो के झाधार से उपनिषद्‌ कारो तथा पुराणकारों के द्वारा दौड़ाई छुई दूसरी कल्पनाऐ' भी अनेक दै । कोरे प्रकृति को उपादान कारण सानता है तो कोर पुरुष को निमित्त कारण साना दै! तो कोई पुरुष को उपादान कारण तथा प्रकृति को निभित्त कारण मानता है ] काई एक अण्डे सेप्रथ्वी की उत्पत्ति बतलाता है, तो कोई परमात्मा के अवतार ने इसका सजन किया है, ऐसा कहता है। काई विश्व को स्वयं भू छत सानता है, तो कोई न्रह्म के द्वारा उत्पन्न किया मानता दै। इसी प्रकार से रछषि के सूजन का आरोपण प्रजापति, विराट्‌ऽमतु, धाता विश्वकर्मा इच्यादि के ऊपर करते है । तथा सजन से काम मे ये इए तत्वो के सम्बन्धमे भो विशाल विविधता दृष्टि गोचर होती दहे । मात्म सृष्टि, स्कम्भ खष्टि, ज-खष्टि नद्य-खष्टि, कर्म-खष््टि, अओकार-सखटि, प्रस्वेद्‌-खष्टि, परस्पर खट्ट




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