नयचक्र | Nayachakra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रस्तावना १३ उन्दी भावोका स्थापन करना, अणुमात्र भी अन्य कल्पना न करना स्वाधित ह । उसेही मुख्य कथन कहते ह 1 उसके लानसे शरीर आदि परद्रव्यमे एकत्वशद्धानरूप घज्ञान भावनाक्रा अभाव होकर शेदविज्ञान होता है तथा समस्त परद्व्योसे भिन्न अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूपका अनुमव होवा ह ! तथा प्रराधित कथनको व्यव- हार कहते हँ 1 किचित्‌ मात्र कारण पाकर अन्यद्रव्यके भावको अन्यद्रन्य्रे आरोपित करना पराधितत कटुता है 1 पराश्नित कथनको उपचार कथन या गौण कथन कहते हँ । इसके जाननेसे शरीर आदिके साय सम्बन्ध. रूप संसारदशाका ज्ञान होता है । उसका ज्ञान होनेसे संसारके कारण माल्लव बन्धको त्याग कर मुक्तिकर कारण संवर ओर निर्जरा भवृत्ति करता है । अज्ञानी इनको जाने चिना ही शुद्धोपयोगी होना चाहता ह । मतः बह न्यवहारको छोड वैठता ह ओर इस तरह पापाचरणर्मे पड्कर नरफरादिमें दुःख उठाता है । अतः च्यवहार कथनको भो जानना भावद्यक है । इस तरह दोनो नयोका ज्ञान दोना मावच्यक ह । सिद्धान्तमें तथा अध्यात्मे प्रवेशके किए नयज्ञान बहुत मावद्यक है, क्योकि दोनो नय दो अविं है । लोर दोनों माँखोसे देखनेपर ही सर्वाविलछोकन होता है । एक आंखसे देखनेपर केव एक देशका ही अवरोकन होत्ता ह । इसीसे देवसेनने नयचक्र ( गा० १० ) में कहा है--जो नयरूपी दुधि विहीन है उन्हें वस्तुके स्वरूपका वोघ नहीं दो सकता । ओर वस्तुके स्वरूपको जाने बिना सम्यग्ददनि कंसे हो सक्ता ह? नयविषयक साहित्य यो तो जैन परम्परामें नयकी चर्चा साधारणतया पायी ही जाती है । किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि. तत्त्वार्थसुत्रके ्ारम्भमें 'प्रमाणनऔैरधघिगसः” सुत्रकी रचनाके परुचातु ही जैन परम्परामें प्रमाण भौर नयकरी विच्येष रूपसे चर्चाका अवतार हुआ है । तत्त्वार्थसुत्र में नयोके केवल सात भेद गिनाये है । उसमें दरन्यार्थिक या पर्यायाधिक भेद चही है । हाँ, तत्त्वार्थसुत्र के व्याख्याग्रन्थ उमास्वातिभाष्य और सर्वार्थसिद्धि में उनकी चर्चा है तथा नय गौर उसके सेदोके लक्षण दिये हें 1 आचार्य कुन्दकुन्दने द्रन्यायथिक ओर पर्यायाधिक तथा निच्वय ओर व्यवद्दारनयसे चस्तुस्वरूपक्रा विवेचन अवश्य किया ह, किन्तु उनके स्वरूपके सम्बन्वर्में विशेष कुछ नही कहा हैं । हाँ, न्यवहारनयको असूतार्थ और चिद्चयनयको सूतार्थ मवद्य कहा है । ( देखो, समयसार गा० ११ ) ।॥ ` माचार्य खमन्तमद्रने अपने मासमीमांसा तथा स्वयंसुस्वोत्रमें चयकी चर्चा की हैं तथा नयके साथ उपनयका भी निर्देश किया है ( आ० सी० १०७ ) । तथा सापेक्ष नर्योको सम्यक्‌ मौर चिरपेक नयोको मिथ्या कहा है ( १०८ ) । किन्तु नय ओौर उपनयके सेदोको चर्चा नही की हैँ । आचार्य सिद्धसेनने अपने सस्मतिसूत्रमें चयोका क्रमचद्ध कथन किया है गौर द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्धिकिको मूल नय बतलाकर शेषको उन्ही दोनोका भेद बतलाया है तथा दोनो नयोकी मर्यादा भी बतलायी हूं उनके भेदोंका भी कथन किया है, किन्तु नैगमचयको मान्य नही किया । इसोसे वे पड्नलयवादी कहलाते हैं । उन्होने कडा है--जितने चचनके मार्गे है, उतने ही नयवाद हैँ जौर जितने नयवाद हं उतने हो पर- समय है ( ३1४७ ) 1 विभिन्नदर्शनोका नयोमें समन्वय करते हुए कहा है--सांख्यदर्दन दन्यास्तिकका वक्तन्य है, बौद्धदर्शन परिशुद्ध पर्यायलयका विकल्प है 1 यद्यपि वैलेषिकदररनमें दोनों नयोसे मख्पया हैं किरि मो वह मिथ्या है, क्योकि व्योनो नय परस्परमें निरपेख् हैं ( ३१४८-४९ ) । इस तरह उन्दने मी निरपेक्ष नयोको मिथ्या का है 1 . सिद्धेन के पर्चात्‌ जैव भमाणन्यवस्थाके व्यवस्थापक जकरूंकदेवने कघौोयस्तरय भकरणमे नय प्रवेक अन्तर्गत चथा सिदधिविनिद्चयके अन्तर्गत अर्थनयसिद्धि और अन्दनयकतिदधि नामक भकरोने नयोकि सात चेदोके साय उनके आभासो नेगमामासख आदिक विवेचन करतें हुए इतरदर्दानोका समावेश किया हं 1




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