जैन धर्म में शासन देवतावों का स्थान | Jain Dharam Main Shasan Devtavon Ka Sathan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लनम सभेव सथाने - ११. कोई भी तीर्थंकर या अर्हसपरभेष्टी नहीं मानता है, उस ` भावसे - उनका कोई बादर नहीं करता है; तो - मिथ्यात्क क्यों करनहों सकता है ? 'यहीं विषय विचार करनेका स्थल हैं ।. ' इस विषयका निषेध करनेवाले सज्जन यह गल्लत कर - लोगोमें श्रम उत्पन्न करते हैं कि' ब्ञासनदेवतावोंको माननेवाले * इन्हे -तीर्थंकरोके समान -भानते है, तीर्थकरोके. समान उनकी ˆ पूजन करते हैं, : उनसे . अपने .इष्टसिद्धि : आदिकी अभिलापा करते हैं, वगेरे'वगेरे, परन्तु यह, सब निराधार है, कल्पित है दूसरोंके ऊपर आरोप करनेके लिए साधन बनाये गये.हैं; इसका -विस्तारसे निरूपण, हम आये इस ग्रन्थ में करंगे । । . उससे , पहिले यह भी विचार: करना. आवश्यक हैकि -* स॒म्यक्त्वके प्रकरणमे फिर यह, विषय आया क्यों? निवेघ करने- वाले इसके लिए कौनसा आधार पेश.करते हैं । इसका भी यहांपर विचार करेंगें। । .. सम्यग्दर्शनकी शुद्धिसे लिए अष्टांगोंकी जैसे आवश्यकता ' बेतलांई उसीं प्रकार तीन' मूढतावोंका अभाव होना भी आव--- 'इयक ` बतलाया गथी है । पतमी ` अमढदृष्टिं धंग की शुद्धि ` हो जाती है। न ® थू ५ ` तीन मृढतये ये हैं, लोक मृढताः, देवमठता, ` पाथंडिमठवा ` सप्रकार है । इसमे देषमृहताको'सामने रखकरये लोग क्षासंन देवतावोके सत्कारका निभेध. करते है, . अतः उसीपर बिच करना यहां उपयुक्त है । ~ इन भूढतागोसे देव॑मूटकंका लक्षणा प्रन्थकारोने इस श्रकार कि है | ¢ ` > - धरोधलिष्यादावार्‌ दाव षमसोमसा-॥ ` १.४ १; यवुपस्सीन देवतामूदसुच्यते ।। . केले के + 1० : > ' ' ` >> , रतकरडनात्रक्यक्प थक




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