रामायण में प्रतिबिम्बित भारतीय समाज एवं अर्थव्यवस्था | Ramayana Mein Pratibimbit Bhartiya Samaj Avam Arthvyavastha

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गीता अग्रवाल - Geeta Agarwal

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प्रो. बी. एन. रॉय - Prof. B. N. Roy

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गुहार भी । राम कैकेयी के लिये भी उतने ही विश्वसनीय हैं जितने तारा, सुलोचना, मन्दोदरी लिये हैं। वह सीता के लिये उतने ही निरपेक्ष है. जितने अहल्या जैसी परित्यक्ता नारी के लिये आत्मीय हैं । वह किसी भी तरह की सामजिक-सांस्कारिक मान्यता के विरुद्ध आचरण वाले के लिये उतने ही कठोर हैं जितने वानरराज वाली के लिये । वह राजा के घर भी पैदा होकर वन्य जीवन की कामना करते हैं । वह सुविधाओं के सागर में भी अभावों की कठोर _ चट्टानों पर नंगे पाँव दौड़ने के आकांक्षी हैं । राम के समतामय शासन में जन-मन को यह जीवन प्रक्रिया निभाने को मिली हुयी है। निर्दस्युरभवल्लोको वल्लोको नानर्थ कशि चदस्पृशत्‌?' वाल्मीकि के अनुसार कहीं भी उनके राज्य में कोई चोर, लुटेरे क्यों नहीं थे। कोई भी व्यक्ति अनर्थकारी कार्यों में हाथ क्यों नहीं डालता था? स्पष्ट है कि किसी को इसकी आवश्यकता नहीं पड़ती थी । केवल राज-भय नहीं था, सबकी जरुरतें अपनी आशाएँ पूर्ण रहती थीं । इससे लगता है कि आर्थिक विषमता नहीं _ थी। “सर्वमुदित मेवासीत” सब लोग सदा प्रसन्न रहते थे। अभावहीन थे। “निरामया _ विशोकाश्च रामे राज्यं प्रशासति”। जनता को न किसी प्रकार का रोग होता था, न किसी . प्रकार का शोक होता था । सबको को शिक्षा व स्वास्थ्य-साधन सुलभ रहे होंगे, तभी न। क्योंकि न पर्य देंवन्‌ विधवा न च व्यालकृतं क्‌तं भयमू । न व्यधिजभय चाशीद्‌ रामे राज्यं प्रशासाति | उनके राज्य-शाषन काल में कभी भी विधवाओं का विलाप नहीं सुनाई पड़ता था, सर्प आदि . दुष्ट जन्तुओं का भय नहीं था औरं रोगों की आशंका नहीं थी । पर्यावरणकी ओर राजसत्ता का विशेष ध्यान होगा तभी तो “नित्यमूला नित्यफला स्तरवस्तु सुपुष्पिता: । कामवर्षीच पर्जन्य सुख स्पर्शश्व वृक्ष, फलों से. लदे हुये फलदार वृक्ष थे।। मेघ लोगों की... इच्छा, आवश्यकतानुसार बरसते थे। वायु मन्द गति से चलती थी, जिससे उसका स्पर्श, सुखद जान पड़ता था। क साहित्य में समय का सत्य तो होता है, कल्पना भी सत्य के आधार को छोड़कर तो नहीं होती । क्योंकि “सत्यं, शिवं, कला के लिये, साहित्य के लिये अनिवार्य शर्त - कर




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