जीवन - साहित्य | Jivan - Sahity

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सांहित्य-सेवा दे -घुनकर विशद करतो है, धमैवुद्धिको जागत करता हे, हृदयकी बेदनाको व्यक्त और श्रोजस्वी बनाता है, सदालुभूतिकी वृद्धि करती है और आनन्दकों स्थायी बनाता है । थस वजहसे साहित्यके प्रति मेरे मनमें आदर है। लेकिन मेंनि अपनी निष्ठा साहित्यको समर्पित नहीं की है। साहित्यकों में श्वपना श्िष्ट देवता नहीं मानता । साहित्यको मै साधनके तौरपर ही स्वीकार करता हूँ, और वह साधनके तौरपर ही रहे असा--श्रगर आप मुमे माफ़ करे तो कहूँ कि--में चाहता भी हूँ। गोस्वामी तुलसी- दासजीके मनमें हनुमानजीके प्रति आदर था लेकिन च्युनकी निष्ठा तो श्रीरामचन्द्रजीके प्रति ही थी । डिसी तरह में चाहता हूँ कि हमारी झुपासना जीवनकी ही हो । साहित्य तो जीवनरूपी प्रभुकी सेवा करनेवाले अनन्यनिष्ठ भक्तके स्थानपर ही शोभा देता है। वह जब अपनी ही अपासना शुरू करता है तब वह अपना घर्मे भूल जाता है । मनुष्य अगर झपने ही सुखका विचार करें, अपनी ही सहूलियतोंकी खोजके पीछे अपनी वुद्धि खचे कर 'डाले और अपने ही आनंदमें रवयं मशगूल हो जाय तो जिस तरह अुसका जीवनविकास अटक जाता है और अुसमें विकृति पैदा होती है, झसी तरह साहित्यके बारे में भी होता है। जब केवल साहित्यके लिये साहित्य” का निमांण होता है, यानी लोग जब साहित्यकी केवल सादहित्यके तौरपर ही अपासना करते हैं सब शुरूमें तो यह सब खूबसरत दिखाझी देता है, विशेष छाकपषेक लगता है, जब तक अुसकी पूर्व-पुर्यात्मी खत्म न हो तब तक अैसा भी महसस होता है कि झुसका बहुत विकास हो रहा है, लेकिन श्रदरसे वह निःसत्त्व होता जाता है । सादित्यको सका पोषण साहित्यमेसे नहीं बल्कि जीवनमेसे, मनुष्यके पुरुषाथमेंसे मिलना चाहिये । साहित्यमेंसे ही पोषण श्राप्त करने- वाला साहित्य कृत्रिम हे, बह हमें झागे नहीं ले जा सकता ।




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