मनन | Manan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
121
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
हरिभाऊ उपाध्याय का जन्म मध्य प्रदेश के उज्जैन के भवरासा में सन १८९२ ई० में हुआ।
विश्वविद्यालयीन शिक्षा अन्यतम न होते हुए भी साहित्यसर्जना की प्रतिभा जन्मजात थी और इनके सार्वजनिक जीवन का आरंभ "औदुंबर" मासिक पत्र के प्रकाशन के माध्यम से साहित्यसेवा द्वारा ही हुआ। सन् १९११ में पढ़ाई के साथ इन्होंने इस पत्र का संपादन भी किया। सन् १९१५ में वे पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आए और "सरस्वती' में काम किया। इसके बाद श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के "प्रताप", "हिंदी नवजीवन", "प्रभा", आदि के संपादन में योगदान किया। सन् १९२२ में स्वयं "मालव मयूर" नामक पत्र प्रकाशित करने की योजना बनाई किंतु पत्र अध
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मनन ९४
तो मैं श्रसत्य का सेवन करता हूँ । जब मैं सिफ॑ बाह्य रूपों में यह मेद
करता हूं तो मैं वस्तुस्थिति को मान्य करता हूं ।
यह मान लेना कि मन में जितनी बातें उपजती हैं, सब सच होती हैं
तर जितनी हम कह या कर जाते हैं सब सच ही हैं, हमारा बढ़ा भ्रम है ।
एक तो सदा सच बातें उसी के हृदय में स्फुरित होती हैं, जिसका
जीवन परम सात्विक --जो सर्वथा राग-द्ेष से हीन है; दूसरे यदि सत्य
स्फुरित भी हुआ तो उसे प्रकट करने का साधन--मनुष्य का मुख या
लेखनी--श्रपूण होने के कारण, प्रकटित बात बिल्कुल सत्य दी है, यह
दावे के साथ नद्दीं कद्दा जा सकता ।
शतएव यह मानना कि सत्य तो कड़वा दोता दे आर कड़वा ही
बोलना, या कढुता अ्राती हो तो उसके प्रति लापरवाद्दी रखना, सत्यप्रिय
मनुष्य के लिए उचित नहीं ।
सत्य श्रौर कटुता एक जगह नहीं रह सकते । सत्याग्रही जब तक इसं
चातका विचार नहीं रखता कि मेरी बात या ग्यवहारसे दुसरे के
दिल को चोट पहुंचेगी, तबतक सत्य का उदय उसके हृदय मे न
द्रा समए ।
जहां दुसरे के दिल को न दुखाने की म॒दुलता नहीं है, वहां श्रहिसा
के श्रस्तित् मे सन्देह रै; श्रौर जदां अहिंसा नदीं, वहां सत्य की कल्पना
करना निरथक है ।
यदि मैं सत्य का ही द्ामी हूँ तो मेरे निन्दक को दबाने का यक्त मुझे
क्यों करना चाहिए !
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