मानुषी | Manushi

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Manushi by सियारामशरण गुप्त - Siyaramsharan Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मषीं ९. साथ कंकड़, कंटक, खड ओर हिस्र पड भी कम नहीं होते । ऐसे पथ पर चलने के छिए जिस साहस्र की श्रावदयकता होती है, उसका श्रभाव उसमें न था । यदि उस साहस के साथ कुछ चातुय उसमे चोर होता, तो कदाचित्‌ को शोचनीय प्रसङ्क उपस्थित न होता । एक विनि युद्ध अहीर ने ाकर मनोहर को श्प दुःख सुनाया । उसके ऊपर य्रमगोपाठ जर्मीदार के कई सौ रुपये निकछते ध्रा रहै थे । निरन्तर कुछ-न-कुछ देकर भी वह सपना खाता श्योदा न करा पाया था । ऋण के इस अंघकूप से उबारने के छिए रामगोपाल ने उसे रात भर रस्सी के सहारे कुए में ठटका रकक्‍्खा था । अन्त में उसकी जमींदारी की कुछ पाइयाँ ौर कोड़ियाँ ही लिखाकर और उसके कई सो रुपयों की रसीद देकर उसे सदा के छिए ऋण-मुक्त कर दिया था । मनोहरलाल सब हाल सुनकर ऐसा उत्तेजित हो उठा, मानो यह व्यवहार उखीके साथ किया गया हौ । उसने सघ संवाद लिखकर भट-से समाचार-पत्र में पने के लिए मेज दिया । .. जव समाचार-पृत्र मै उक्त समाचार छपा, तवे गोँव- वाढों को सिश्चित रूप से माठूम हो गया कि संसार में अब कछिकाठ अपनी सोलहों कठाओं से अवतीण हो णया है । मी से झपने घर-गाँव की बुराई ऐसी कड़ी भाषा में




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