झूठ सच | Jhooth - Sach

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Jhooth - Sach by सियारामशरण गुप्त - Siyaramsharan Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बंहेस की बात -१५ हमसे अधिक गीध में है । कान धोड़ें ओर गधे के भी हमसे 'बहुंत बढ़े हैं । इत्ते की ध्राण-शक्ति की बराबरी तो हम कर दी नहीं संकते । दोड़ने की बात आतो है, तब मझूग का पशुत्व भूछकर, उसीकी काल्पनिक समता में गोरव का अनुभव केरंना पड़ता'है । जो बात कहीं दूसरे मे नहीं मिलती, वह है हमारी वोणी। 'अंतएव 'जंब हम किसीकी बात सुनते है. तो स्वभावतः' हमे यह अनुभूति होती है कि यह अपने उसी बंडृप्पन की घोषणी कंर रहा है । उसका महत्व खण्डित करके अपना महत्व स्थापित कर देना दी वहस की मनोवृत्ति का कारण है। इसका काम है, महत्वाकांक्षा की वृद्धि करके हमें ओर भी बड़ा कर देना । बेलछो में जब यह वृत्ति पेदा होती-हैं तो-बे सीग चला देने के सिवा किसी दूसरे ढंग की बहस नहीं करते । मनुष्य की जीभ विना सींग के 'सींग तो चछा ही लेती है, ओर भी उसके लिए बहुत-सी बातें आसान हैं। सच पूछों तो दूसरे प्राणियों को विधाता का जिह्ा- दान उसके बड़े से बड़े अपव्ययो में से एक है । परन्तु अब ओर कुछ लिखने को जो नहीं करता। जीभ॑ की स्तुति जीभ चला कर ही की जा सकती है, लेखनी चलाकर नही । इन बातों को काट कर कुछ कहने वाला कोई दूसरा होता, तब भी कुछ वात थी । यदि किसी दूसरे ने यह सव कहा होता तो वह कठिन काम में स्वयं स्वीकार कर लेता । पर अब तो बाहर जाकर ही जीभ की यह प्यास मिट सकगी । भने जिसे पूवे कह दिया है, उसे (७ ही कहता जाऊँ, तब यह




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