नियमसार प्रवचन भाग 4 | Niyamsaar Pravachan (Bhag - Iv)

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Book Image : नियमसार प्रवचन भाग 4 - Niyamsaar Pravachan (Bhag - Iv)

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महावीरप्रसाद जैन - Mahavirprasad Jain

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श्री मत्सहजानन्द - Shri Matsahajanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गाथा ५६ > ९१ हि जीवमें सिथ्यावका जीं चल रहा टै शरीर उसके कारण जो ङ लोकिक वेदनाएं हो रही हैं उन लोकवेदनावोंका इलाज यह जीव षिध्य- सेषनसे, चिषयरसपानसे, यहां षां की थोती बातोंसे: घन चैभवके संचय से नाना उपायोको करता है किन्तु इसका क्लेश तो मोक्षस्वरूप नहीं है । थोड़ी शांति समभते हैं किन्तु फिर अ्योका -स्यों दु.खी। तो जव तक वहं मिथ्यात्वका अजीशणं न पचेगा तव तक संसारक श्लेश दूर नहीं हो सकते यहं मिथ्यात्व है स्वयकी हिंसा _। प्रनन्ताचुवन्धी क्रो घसे झात्मदिंसा-- श्न्नताजुबन्धी क्रोध उसे कहते हैं जो भिथ्यास्वका पोषण करे, सस्यक्त्ष ही न होने दे! इस क्रोधमे ' पने श्नापके स्वरूपकी रश्च खचर नदीं रहती है । अपने श्रापसे यद्‌ जीव धिमुख रहता है । यह जीव कितना पने घाप पर क्रोध किये जा रहा है ? यह्‌ अपने श्रापकी किननी बरबादीका फाम है ? वह पुरुष सद्दाभाग है जिसको अपने चापकर स्वरूपका मान रहता दै । दृसरोकी गालिया सुनकर हस सफ, समम सके, यह श्रक्ञानकी चेष्ठा है । इस चेष्टाका मुममें प्रवेश नदों है-ऐसां ३ श्रात्मत्रल कर सके, वह मक्षमा छामिनन्दनीय और पच्य हे । ः । -श्मनन्ताुबन्धी मानसे श्रात्मर्दिसा-- अनन्ताजुबन्धी मान, घमरुड का-परिणाम ऐसा यत्न है जिसमें अपने ापके स्वरूपकी सुधबुय दी न * रहे। एकदम भाहममें दृष्टि है; सब लोग तुच्छं है, च नहीं जानते हैं; इनमें दम कुछ विशेष हैं, उत्तम कार्य किया करते हैं; झपनेको बड़ा मानना शरीर दूसकी तुचंड समकना--ऐसी जिसकी चृष्टि हुई है; उसने; झपने छापके स्वरूपका झपमात किया है। दुसरोंका छपमान करना) 'पने स्वरूपका श्रसान दै । जीवनमे यह गुण तो श्रवश्य लाश्नो कि-जितना बन सके हम दूसर.ा सान्‌ दीररक्ला करे, समान ही रक्खा करे, श्रपमानकभीन कर । निश्वयसे समभिये कि जिस दुष्टपरिणस्के कारण दुसरोका अपमान क दविया-जाता दै, चुहू. परिणाम इसके स्वूपक्ता वाधक है । मानन कर सृके तो श्रपूमान भी नःकरे । ` , ` अनन्ताचुबन्धी मायासे श्रात्म्दिसा - अनन्ताज्ुवन्धी माया--घोह, कितनी टेढी मेढी चित्तश्रत्ति है कि यह उसे चन लेने हो नहीं देती है । यत्र तत्र विकल्पजाल सचा करते है । सायाचारी पुरुप कभ श्रारामसे रह नही पाना है | बहुत दु वृत्ति है। पनी सही वृत्तिरखो, सीधा साफ काम रक्लो । जनन्तातुबन्धी मायाने इस अथु धात्सदेत्र पर महान्‌ प्रहार किया दै! यह चित्राम वानेके योग्य भी नदीं रहता है ।




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