मोक्षशास्त्र प्रवचन -भाग 19,20,21 | Moksha Shatra Pravchan (Bhag - 19,20,21)

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Moksha Shatra  Pravchan (Bhag - 19,20,21) by श्री मत्सहजानन्द - Shri Matsahajanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सत्र ६४ ११ कषाय, क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार परिणाम प्राप्माका घात करते है, कसते है, इसे दुखी कर ढालते है । बेचैन हो जाते है र्मा कषायोपि गरस होकर । प्र फिर प्रगते भव म कुगति भी मिलती है सो श्रये भौ उका फल भोगना पढ़ता है । ती म्रात्माको धै कषायं चोटती है घात करती ह इस कारण एनहे कषाय कहते ह । श्रधवा कषाये दूध, गोद ग्राक्कि की परह्‌ कर्मोको चिपकाती है इसलिए वे कपाय कहूलाती । जैसे बढ़ म्रादिकके पेहसे जो गाढा दू ग्रथवा गोद जैसा निकलता है वह दूसरे पदार्थोंको चिपकानेमे कारण है, ऐसे री क्रोघादिक भाव भी प्रात्माको कमंसे चिपकानेमे कारण बन जाते हैं या प्रात्मासे कर्मको चिप- कनेगे कारण बतते द, इ कारण वरषायकी तरह होनेको कषाय कहते है। नो इन कषायोसे युक्तं भाव है वै सकषाय कहलाते है । घनौर जो कषायोसे रहित है, जहाँ कषायें नहीं पायी जाती वह प्रकषाय कहूलाता ह । तो कषायसहित जीके साप्परायिक प्राप्रव है, कपायरहित जीवके ईरयापिधाश्रव है । ` (१५) साम्परायिक न ईरयापय प्रावा निरक्यथं भावार्थ स्वामित्व प्रादि दिषयकष घर्चा--साम्पराय शब्दगे मूल शब्द है सम्पराय श्रौर उसकी व्यूतत्ति है कि चारो श्रोरे कमेक द्वारा श्रालाको पराभव होना सो साम्पराय टै । कर्म॑भिः समन्तात प्रात्मन; पराभवः इति साम्परायः शरोर यह्‌ साम्पराय जिसका प्रयोजत हो, निका कायं हो एस धाप्परायके प्रयोजन वाला काम साम्पराधिक कहलाता है । इत दोनो धराश्रवोमे साप्परायिक ्राश्चव कठिन है, कठोर है, ससारका बढ़ाने वाला है, सस।रफल देने वाला है, सुख दुःखका कारण है, किन्तु ईर्यापथास्रव केवल श्राता है प्रौर तुरन्त निकल जाता है, श्रात्मागे ठहरता नही है । ईर्यापथ शब्दे दो ब्द है- (१) ईर प्रर (र) पय । ईर्या ताप है योगकी गतिका, ईरणं ईयं श्रथ परासप्देएपरिस्पेद होना से कते है व प्रोर दयि दवारते जो कायं होता है उसे हूते ई ईर्यापथ । दयार यस्य तत्‌ दर्ापय' दस सूत्रम दो पद ई भौर दोनोपे दद समास है पर इसी कारण|दोनो ही पद द्विकचनमे है, जिनका विभक्ति भ्रनुसार प्रथ॑ है कि कप्रायसहित जीवके सास्परायिक कमेक प्राध्व होता है । कषायरहित जीवके ईर्यापंथकर्मका ग्राश्रव होता है । मिथ्यात्व गुणस्थानसे लेकर सुकष्मसाम्पराय गुणस्थान तक इन १० गुर स्थानोगे कपायका उदय रहता है । सो कषायके उदयसे सहित जो परिणाम है ऐसे परिणाम वाले जीवके योगके वशसे कम श्रते है शरीर वे गोते षमहेमे धूल लगनैकी तरह स्थि हौ जाते है वे साम्परायिक कर्म कहलाते है, श्रौर ११वं गुणास्थानसे लेकर १३वें गुणास्थान तक उपशास्त कपाय, श्षीण कपाय झोर सयोगवेवली ये तीनो कषायरहित हैं, वीतराग है, रिन्त योगका सद्भाव है तो इसके योगके दशसे जो कम आते है सो ग्रायें तो सही, पर कषाय ने




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