सत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार भाग 3 | Tattvarthashlokvartikalankar ((bhag - 3)

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Tattvarthashlokvartikalankar ((bhag - 3) by माणिकचंद कौन्देय-Manikchand Kaundeyवर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री - Vardhaman Parshwanath Shastri

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वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री - Vardhaman Parshwanath Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तस़ार्थचिन्तामाि!, ५ यत्नः पया्ारपरिध्यविरोषत्‌ः । परनःयैयणं येन मनप येपि ग ॥ ६ ॥ प॒ मनप्ो तयो मनोत्राथा मनोगताः । परेषां घमो पापि तदाटेबनमातष्‌ ॥ ७ ॥ जो ज्ञान मन:पर्वयज्ञानावरण कर्मके ' क्षयोपशमरूप विशेष परिक्षये अपने या दूसरेके भनौ ठरे इये पदाथा जानखिव। जाता दै या मनोगत पाका निप करके अतीन्िय प्रक्ष ञान कएठिथरा जाता है, वङ्मनःपर्यय है जथवा जो ज्ञान मरन तषट इ पदार्थीको चारें। ओरसे घर्त्रता पूर्वक पर्क्ष जानता दै वह भी मनःपयय हान समदाना चाहिये इस प्रकार मनः उपपदकें साय परि उप पूर्वक इण्‌ मत धातत कर्म, करण, खर कर्तीमें अनु प्रयय करनेपर मनःपथैय द्र वना है। यहा मनम लित शे पायक मनः शे प्रहण किया गुव दे | अन्यजीवोंका मन अथवा अपना भी मन ३ मन. पर्वयहञानका केवर आदेवन, ( सहाय ) है, जते कि किती पु या स्थूछष्ट पुरषेकरो दितीयाकें चन्दमाका अवठोकन करानेके ठिये दृक्षकी शाखाओंके मध्यमंते या बादूलोंमेते लय बंबाय जाता है । बहा शाला या बादल केवल बद्धपष्टिकाके समान अवछंब मात्र हैं। वलतः ज्ञान तो चक्षुपे ही उपन्त हुआ दै, इसी प्रकार अतीक्िय मन:पर्यथ ज्ञान तो अत्मा ही उत्पन होता है किन्तु सकीय' परकौय मनका अवव कः ईहा मतिङान दवार संयमी पुनिके विक प्रसक्षरूप मन:पर्वयज्ञान होता है | शायोपरामिकन्ञानासहायं केवं मत । पदर्थमर्थिनो मार्ग केवंते ता तदिष्यते ॥ ८ ॥ केवल शदट्टका अर्थ किप्तीकी मी सहायता नहीं छेनेवाला पदार्थ दे | यह केवखज्ञान अन्य चार क्षायोपशामिक ज्ञानोंकी सहायत्ताके विना आवरणरहित केवट आप्ति प्रकट होनेवाला माना गया है। अथवा ख्रा्मोपठव्विके अभिराषी जीव निप ताके छिये मार्गों सेंवते हैं, वह केवलज्ञान इृष्ट किया गया है | दोनों ही निरुक्तिया अच्छी हैं | मत्यादीनां निरक्येव ठक्षणं सूचित एथकू । तलकाराकसूत्राणमभावदुत्तख हि ॥ ९ ॥ यथादिसेप्रनस्य चारित्र्य च रक्षणम्‌ । निस्तेव्यमिवारे हि रक्षणातरसूचनम्‌ ॥ १० ॥




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