हिंदी साहित्य में भ्रमरगीत की परम्परा | Hindi Sahitya Main Bhramar Geet Ki Parampara

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(७ दूसरे साहित्यिक । “श्रमरगीत” साहित्यिक गीत की परम्परा पताह यथपि सामेद, मागवत के पचगीन तथा पौराणिक स्तोत्रों में गेयप्न पूर्णरूप से विधमान है किन्तु दिंदी को साहित्यिक गीतिकाब्य की प्रेरणा देनेवाले ,पीयृपवरप कपर जयदेव दी दै । सस्छृत के इस मधुर माप के उपामक कवि का पूरी प्रभाव मैथिल कोकिल “मिधापति” पर पड़ा तथा इस धारा की पृशंता हमें सूरदास के कान्य में प्राप्त हुई । उनकी तथा उनके समक्रालीन भक्त कवियों की रचनायें झधिकांश कीर्तन गायन के लिये दी लिखी गई थी उन भक्त कवियों को कवि कहलाने की चाह नहीं थी | कविता ही उनकी साधना थी श्रीर्‌ इष्ट देव का गुणगान दी उनका '्येय था । उनका काव्य स्वान्त - ' सुखाय तथा. स्वानुभूति प्रकाशक था । यहीं कारण है कि उनकी रचनांशों में तुलसीदासजी की माति प्रवन्धातमक्ता का श्रमाय हे । घार्मिक धुग फे वाद श्गारिक कालम भी उस प्रसग पर फवित्त लिखे गये } इस काल मे काव्य के वाह्य उपादानं फो प्राघाय भिला | प्रन्थों की रचना श्ाश्रयदाता को प्रसन्न करने के लिये की जाती थी जिसका विपय 'मलकारशास्र या. नायिकामेद दोता या । ऐसे समय में स्वतन्त्र भ्रमरगीतों की रचना तो नह्दीं दो सकी किन्तु कुछ कवित्त, बरवै या पद कमी श्रलकारों के उदाइरणस्वरूप ौर कभी रसनिरूपण के झतर्गत इस सम्बन्ध पर भी लिख दिये जाते थे | ऐसे कवियों के ्रतर्गत रहीम, मतिराम, पद्माकर, सेनापति, देव, श्मालम, ठाकुर, बीरबल भ्ौर दास शादि कवि थाते हैं । देव के कवित्तों में प्रसगालुसार वर्णन प्राप्त होता हैं। इस काल में भी कुछ कवि हैं जिन्दोंने , चमरगीत की क्रमबद्ध रचना की है | उनमें से प्रमुख रसनायककत “विरद्दिलास”?, । रसरासि कृत “रसिकपच्चीसी”, ग्वाल कवि कृत “'गोपीपष्चीसी” तथा चजनिधि । कृत “प्रीतिपष्चीसी” हैं । इन लमरगीतों के सम्बन्ध में एक शौर विशेष वात यह हे कि यह पदौ में न लिखे जाकर कवित्त छुद में लिखे गये हैं | श्वगार- प्रियता की यह भावना इस परम्परा को समाप्त न कर सकी । शाधुनिक युग में पुन ख्रमरगीतों की रचना प्रारम्म हुई | इन भ्रमरगीतों | पर सामयिक परिस्थितियों का भी. प्रभाव पड़ । थाधुनिक ख्रमरगीततकारों में ' जगनायदास रूनाकर का “उद्धवशा तक”, सत्यनारायण कविरत्ननी का




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