काव्यप्रकाश | Kavya Prakash

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Kavya Prakash by श्रीनिवास शास्त्री -Shri Nivas Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विपय-प्रवैण | ६ जिनमें मध्यफालीन भारत पैः लोग सनि ररते थे , इसमें कुं साहित्यिक विपर्पौ का भी विवेचन विया गया है । इसके पततिपय भष्यार्यों मे काप्य-शारप्रथिपयक विवेचन भी है; जेसे--प्रप्याय ३३६ में काव्यलक्षण सथा पाव्यभेद (संरत भीर प्रात, मच, पच्च तथा मिश्र) त्या क्या, भार्यापिका प्रौर महाकाव्य का स्वषूप निस्पण किया गगा है। अध्याय ३३७ में रुपफ पर विचार किया गया है तथा ३३८ में रस, स्थायी भाव, विभाव, घनुभाय तथा व्यभिचारी भाव भादि के निरुपएा के साथ-साथ नायक प्रोर नापिपन फे गुणो षन वर्णन ई । ३३६ म पाञ्चाली, गौडी, वदभ प्रौर साटी नामकः चार रीतियोौ एवं भारती, सात्वती किकी तया भ्रारमटी नामक ' चार यृत्तियो फा वियरण है प्रध्याय ३४०, ३४९१ में विविष प्रकारके श्रद्धवासन एषे प्रभिनय का, ३४२ से ३४४ तपः धझ्लझुारों का तथा रे४५-३४६ में काव्य के गुणान्दोपों का विधेचन विया गया है । एस प्रपपर काव्यगास्यर विपयफ ३६९ इलोक इन भ्रष्यायों में है । निन्तु इनमें मरने इलोक नाट्ययरशास्प्र से लिंपे गये प्रतीत होते हैं । भ्रर्निपुराग्य के भलखार--विवेचन पर काव्याद् तया भामह के भ्रलद्धारनिरूपशा का भी प्रभाव परिलक्षितत होता है । ऐसा भी भ्ाभास मिलता है कि ध्वस्यासोफ में प्रतिष्ठित ध्वनिनशिद्वान्त से भी श्रर्निपुराशा परिचित्त है । इन कारणों से बिदज्जन भ्रग्निषुराण को अलद्ारणास्त्र की प्रथम कृति स्वीकार सही करते (देखिये 7, ४. हधप८ से $ ए. बू० ०१०) (२) नादूयशास्त्र साहित्य शास्त्र का प्राचीनतम उपराब्ध ग्रम्थ भरतमुनिकृत नास्यशास्त्र ही माना जाता इसके रचनाकाल का ठीक निश्चय नहीं किया जा सका है। बुछ विद्वानों का कथन प है कि यह एक काल की रचना नहीं, श्रपितु घतादिदियों ' के साहिहिपिक प्रयास का फल है। म० हरप्रसाद घाहपी ग्रादि विद्वानों के मत में ध्राचायं भरत का समय ईस्वी पूर्व द्वितीय धताब्दी है । प्रो० कीथ के मतानुसार नाट्यशास्त्र का समय ईसा की चूतीय ातान्दी से पुर्व नहीं हो सकता 1 इस प्रकार नाट्यमास्त्र का समप २०० ई० पूर्व से ३०० ईस्वी तक के मध्य में दोलायमान है । बाह्य श्रौर श्राम्यन्तर प्रभाणों से भी इसके कालमनिर्घारण में थोड़ी हीं सहायता मिलती हैं । कालिदास ने चिकरमोवंशौय नाटक में भरतमुि का स्पष्ट निर्देश किया है-- शुनिना भरतेन प: प्रयोगों भवततीप्वप्टरसाधयो नियद्ध सलिताभिनयं समद्य भर्ता सहतां इप्ट्मना: स लोकपाल: ॥ [श्रद्धः १) सते प्रतीत होता है कि कालिदास से पूर्व ही नाय्याचायें भरत एक पौराणिक व्यक्तित्वं धारण कर चके थ; किन्तु कालिदास का समय भी श्रभी श्रनिर्धारित ही है ।' नास्यशास्म के अन्त: साक्ष्य से भी उसकी प्राचीनता सिद्ध होती है । उसमें ऐन्द्रव्याकरण तथा यास्क के उद्धरण तो हैं किस्तु पाशिनिव्याकरण के नहीं । उसकी भाषा तथा विषय प्रतिपादन की शैली भी प्राचीनता को प्रकट करती है। भ्रलद्धार आस्व के सभी श्राचायोँ ने भरतमुनि का आदर फे साथ स्मरण किया है | भाचार्य मम्मट ने रस-सूत्र को उद्ध,त वरते हुए उनका नाम निदेश किया '




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