दशरुपकम | Dasharupakam

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Dasharupakam  by श्रीनिवास शास्त्री -Shri Nivas Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका [ ४ इस प्रकार दशहूपक का रचनाकाल प्राय निश्चित सा ही है। यह सुनिश्चित है कि धतकवय के पिता का वाम विष्णु था, जैसा कि उहोते स्वथ ही दशहूपक के अन्तिम श्लोक मे उल्लेख किया है । इसके अतिरिक्त धनल्जय की जीवनी आदि के विषय में कोई तथ्य उपलब नहीं द्वोता, न द्वी यह विदित होता है कि दशहूपक के अतिरिक्त धतञ्जय ने किसी और ग्रय की भी रचना की थी या नही । (२) दशरूपक का आधार--दशरूपक नाटघशास्त्र का एक महत्त्वपृण ग्रय है, (नाट्य ८ रूप--हूपक) 1 इस ग्रय में दश मुख्य रूपा या रूपकों का वणन है । मत यह दशरूपफ कहलाता है । हॉस (85) का सुझाव है कि इसका साम दशरूप रहा होगा, बयोंकि घनरजय ने भतरिम श्लोव' मे दशरूप नाम ही दिया है (दशखूपम्‌) एतव्‌), घतिक ने भी टीका का नाम दशरूपाववीक ही रक््या है (12717040०007५ ४४९णएा।] कितु आज यह ग्राथ दशरूपक' नाम से अ्रसिद्ध है। नाटघशास्त्र में अत्यंत विस्तार से वणित नाटघ सम्दधी सामग्री को स्ृक्षेप में कितु विशद रूप से प्रस्तुत करना ही घनरज्जय का लक्ष्य है। वाटयशास्त्र मे नाट्यविषयक मतव्य इधर उधर बिखरे हैं, विविध विपयो के विवचन में यत्र दत्र उलसे हैं तथा सत्यधिक विस्तार से प्रस्तुत किये गये हैं । इसलिये भले हो विद्वज्जन नाठ्यशास्त्र के द्वारा माट्थविद्या का ज्ञान प्राप्त कर सकें, अल्प-बुद्धि यनो के लिये तो वह दुरूह ही है। को माटठशविद्याबोधगम्य बनाने के लिये ही घनञ्जयम ने नाटबरशास्त्र के मतव्यों की प्राय प्ाटपशास्त्र के शब्दों मे ही सक्षेप मे ग्रथित किया है +>तस्याथस्तत्पदस्तेन सह्षिप्य हक्ियतेः>जसा” (दश० १ ५) । नाठ्यथास्त्र का आधार लेते हुएं भी धनस्जय ते ययासम्भव नवीन उद्भादताएँ की हैं जसा कि उहाने स्वय हो बतलाया है-- “बाटभाता कितु किड्चितु प्रगुणरचनया लक्षण सक्षिपामि (दश० १४)। वस्तुत नअजय ने उस समय उपलय समस्त माटथ सम्बधी सामग्रो का भी भोति उपमांग किया है, पुवर्र्वी आचार्यों के मतों का परिष्कार किया है और यवावसर आलोचना भी की है। “उदाहरणाय दशहूपक मे उद्मठ के श्त्तिविषयक मत वी (३६१) तथा रुद्रट (४ ३६) एवं ध्वनिकार (४३७) के रसविपयक मत की आलोचना की गई है 1 अनेक स्थतो पर याट्भशास्त्र मे प्रयुक्त माम, लक्षण तथा विभाजन को परिष्डत किया गया है । भरत ने चार प्रकार की नायिका (दिव्या, पत्नी, छुज्तस्त्री तथा गणिका) का तिरूपण किया था किन्तु धनस्जय ने तापिका के तीन प्रकार बतलाये हैं--स्वद्ीया, अया (परकीया) और साधारणी । इसी प्रकार भरत ने श्रज्ञार रस के दो भेद किये चं--सम्भोग तथा विश्रलम्भ, छितु धनज्जय ने अयाग, विप्रयोग तथा सम्भाय नाम सं तीन भेद किये हैं। धनण्जय ने कही पारिधाधिक शब्दा के प्रयोग में परिवतन किया है 1 (द्० प्रकाश १ सूत्र ३१, ७६ 5०, ६६, १०७, रै२०, तथा प्र० २ सूच <० ८६, बादि), कहीं लखण में परिव्कर किया है [द्ि० प्र० १ सूत्र ड३, ४८, ५०, ६२, १०२,) । सम्मवत इन परि-




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