हरिरस (भक्ति-ज्ञानामृत भावार्थ-दीपिका) | Hariras (Bhakti Gyanamrat Bhavarth Deepika)

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Hariras (Bhakti Gyanamrat Bhavarth Deepika) by वदरीप्रसाद माकरिया - Vadariprasad Makriya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हरिरस-का काव्य-सौन्दर्य श्री ईसरदासजी राजस्थान के प्रमुख भक्तों में से एक हैं । इनको प्रधिकशि रचनोभोमे ' प्र्ठ का गुणगोन किया गया है 1 हरिरस' इनका सर्वाधिक लोकप्रिय अन्थ है। राजस्थान श्र गुजरात में हजारो व्यक्ति झाज भी इस रचना का दैनिक पाठ करत हैं। इसका मूल कारण 'हरिरस' का माध्याह्मिक महत्व है। कवि का प्रनन्य भक्ति भाव श्रीर सगवदु-स्वरूप देखकर ही 'ईसरा- परमेसरार कथन सदियों से प्रचलित है । भक्ति काल में जिन कवियों ने मानव-चेतना को उद्वुद्ध कर उसकी आस्था धौर विश्वास को दृढ बनाया तथा सृष्टि के विमिन्न रूपों में अपने प्रमु के ही दर्शन किये, उनमें ईसरदासजी का स्थान महत्व पूर्ण है । ली यों तो 'हरिरस' कया-विहीन एक मुक्तक रचना प्रतीत होती है, पर उसका सुशष्म श्रध्ययन करने से विदित होता है कि कर्वि ने उसका निर्माण निश्चय ही एक विशेष उद्देश्य को समक्ष रख कर फ़मघद्ध रूप में क्या है । चाहे ग्रन्थ के विभिष्न रूपों में पाठान्तर हो पाहे उसकी हुस्तलिखित श्र प्रकाशित प्रतियो के पदों में क्रम न हो, पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि कवि ने इसमें ३६० छद लिखे हैं जिसका उरलेल उसने ग्रत्थ के ध्रन्तिम दोहे में किया है । हरिरसः फा. उदक्य स्पष्ट करते हए कविने स्वं प्रथमतो ह्वर के एक मात्र प्राधार हने काउतल्लेख चमत्कारिफ ढंग से किया है। भन्तरिक्ष से विछुंडने पर तो प्राणियों को यह घरवो घारण ' करते है पर'जव थे. इस घरा से जाते हैं त्तत तो घरणीघर के सतिरिक्त चनका भौर कोई भाभेय नहीं होता-- प्राम घिछूटा मसांरार्सा, है धर भकत्लणहार । ` धरणीधर 1 षर धता. प्सात प्राधार॥




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