अपभ्रंश प्रकाश | Apbhransh Prakash

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Apbhransh Prakash by देवेन्द्र कुमार - Devendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| & | अपभ्र श मे सवंसामान्य प्रवृत्तियों ही श्रधिक दिख देती है , पर उत्तर- कालिक श्रपश्रश में. प्रांतीय रूपों का श्रधिकाधिक ग्रहण होने लगा । अर्थात्‌ प्रांतीय प्रइत्ति फुट होने पर बह देशी भाषात्ों के श्रधिक निकट रा गया | विद्यापतिने अपनी कीर्तिलता मे जिस भाषा का व्यवहार किंया है वह प्रांतीय या पूर्वों रूप लिए; हुए हे । कुछ विद्वान अपध्रश के इस उत्तरकालिक रूप को 'अ्रवहड़' कहने के पद में है अर्थात्‌ उनके मत से ग्रपभ्रश ग्रोर देशी भाषा के बीच एक सोपान “वह का है । इसमें संदेह नहीं कि देशी भाषाओं का उदय होने के पूर्व ्पभ्न श का ऐसा रूप अवश्य आया होगा जो उनके निकट था, ग्रतः पुराने या पूरवकालिक आपग्रश को श्रपश्रेश श्रौर उत्तरकालिफ को -श्रवहट्र' कदा जाय तो कोई हानि नहीं | पृवकालिक अपभ्रश के लिए पट नाम कही प्रयुक्त मिला नी नही है पर उत्तरकालिक अ्रपश्रशके लिए, बट नाम श्राथा है। प्रकरतपगलमः की टीका में इस नाम का व्यवहार बार-बार ह्र है । यह “वहट्टर (तत्सम श्रपश्नष्ट) देशी भाषा के निकट है या यो कहिए कि देशी भाषा की मिलावट से साहित्यारूढ़ पारपरिकि ्रपथ्रश ही “व है । विद्यापति ने “्वहट' को मीठी देशी भाषा के निकट लनि क्रा प्रयास किया है) उन्होंने जो बह लिखा है कि सकक वानी बहुश्र न भवह; पाउझ रस को मम्म न जानह।




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