कसाय पाहुडम | Kasay Pahudam
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
21 MB
कुल पष्ठ :
438
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( १५ )
भाव- मोहनीय सामान्य श्रौर उत्तर प्रृतियोके उन्कृष्ट, ्रनुषटृष्ट, जघन्य श्रौर श्रजघन्य श्रनुभाग-
वालोका सर्यश्र श्रौदायिकं भाव दहै, क्योकि मो्टनीय कर्मे उदयम ही इनका बन्ध श्रादि सम्भव है ।
यद्यपि उपशान्तमोहमें मोहनीयके उदयके बिना भो इनका सत्र देखा जाता है पर चहां पर नवीन बन्ध
होकर इनकी सत्ता नहीं होती, इसलिए सर्वत्र छोदयिकभाव कहनेमें कोई दोष नहीं हे ।
सन्निकषं - मोहनीयसामान्यकी अपेक्षा सच्लिकर्ष सम्भव नहीं हे । उत्तर प्रकृतियाकी अपेक्षा जो
मिथ्यात्वका उत्कृष्ट झनुभागवाला जीव हे उसके सम्यक्त्व और सम्यम्मिथ्यात्वका सच्च होता भी है श्रौर
नही भी होता, क्योकि श्रनादि मिथ्यादृष्टिकै श्रौर जिसने इनकी उद्वेलना कर दी हे उसके इनका सर्व नहीं
होता, श्रन्यके होता हे । यदि सस्व होता हैं तो नियमसे इनके उत्कृष्ट नुभागका सत्त्ववाला होता हे, क्यों कि
यह सचिकर्ष मिथ्यादष्टिके हो सम्भव है श्रोर मिथ्यादष्टिके सम्यक््त्व शरीर सम्यग्मिथ्यात्वका मात्र उत्कृष्ट
श्रनुभाग होता है । मिथ्यात्वके उत्कृष्ट झनुभागवाले जीवके सोलह कषाय श्रौर नौ नोकषायोका नियमसे
सत्य होता है। किन्तु उसके इन प्र कृतियोंका उत्कृष्ट श्नुभाग भी होता है रौर अरनुन्छृष्ट श्रयुभाग भी
होता है । यदि अनुत्कुष्ट अनुभाग होता है तो वह छह दानियोंमेंसे किसी एक हानिकों लिए हुए होता है ।
कारण स्पष्ट हे । सोलह कपाय शौर नो नोकपायोंमेंसे एक एकको मुख्यकर इसीप्रकार सन्निकपं घटित कर
लेना चाहिए । सम्यक्त्वक उत्कृष्ट ्रनुभागवाल्ञे जीवके सम्यग्मिथ्यात्वका उन्करष्ट श्रनुभाग नियमसे होता हे ।
मिथ्यात्व. वारह कपाय श्रौर नौ नोकपार्योका उत्कृष्ट अनुभाग भी होता है श्रौर अनुत्कृष्ट श्रनुभाग भी
होता है । यदि अनुन्क़ष्ट अनुभाग होता है हो वह छुह प्रकारकी हानिकों लिए हुए होता । इसके
श्ननन्तानुवन्धीचतुष्कका स्व हाता भी हे श्रौर नहीं भी होता हे। यदि सत्व होता हे तो उत्क्ष्ट अनुभाग
भी होता दे शोर अनुस्कष्ट अनुभाग भी होता हे । यदि श्नुस्कृष्ट अनुभाग होता है तो वह छह प्रकारकी
हानि क्लि हुए होता है । सम्यग्मिथ्यात्वकों सुख्यकर सम्यक्त्वके समान ही सम्निकर्ष जानना चाहिए ।
मात्र सम्यस्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागवालेके सम्यक्त्वका सर्व होनेका कोई नियम नहीं है। कारण कि
सम्यक्त्वकी उद्धेलना सम्यग्मिथ्यात्वसे पहले हो जाती है । पर यदि उद्देलना नहीं हुडे है तो नियमसे
सम्यक्त्वका उन्कृष्ट श्रनुभाग ही पाया जाता हे ।
मिथ्यात्वे जयन्य श्रनुभागवालके सम्यक्त्व ओर सम्यग्मिथ्यात्वका सत्व होता भी हे झोर नहीं भी
होता । यदि सम्यग्दष्टि जीव मिध्यात्वकों प्राप्त होकर श्रोर सूचम निगोद श्वपर्याक्षमे उन्न दाकर सम्यक्त्व
आर सम्यग्मिध्वान्वकी उद्रेलनाके पूं मिध्यात्वके जघन्य श्रनुभागक्ो प्राक्च होता है तो उनका सत्व
होता हैं अन्यथा नहीं होता । यदि सरव होता है तो नियमसे श्रजवन्य श्रनुभागका ही सक्छ होता है जो
श्रपने जधरन्यमे अनन्तगुणा अविक हता दे! इसके अनन्तानुवन्वीचतुष्क, चार संज्वलन श्रौर नौ
नोकपायोका नित्रमसे सख होता हे जो श्रजघन्य श्रनन्तगुणा अधिक होताहे। कारण कि इनका जघन्द्र
श्रनुभाग सृतम निगोद् श्रप्याप्क सम्भव नहीं हे । श्राढ कपारथोका स्व होता है जो जधरन्यभीदहोताहे
रौर श्रजवन्य भी होता है । यदि श्रजवन्य होता हे तो नियमसे छह इद्धियोंको लिण ह् होता है ।
मिथ्यात्व श्रौर शाट करयोके जन्य श्रनुभागका स्वामी एक है, इसलिए यहाँ ऐसा सम्भव है ।
श्राट कपायोमिसे प्रत्येक कपायको मुख्यकर सत्निकपंका कथन मिध्यात्वके समान ही करना चाहिए ।
सम्यक्त्वके जयन्य श्रनुभागवालेके बारह कपाय शरोर नौ नोकपार्योका श्रपने सके साथ अजघन्य
अनुभाग होता हैं. जो श्रपने जवन्यकी श्रपे्ा श्रनन्तगुणा अधिक होता हे । इसके ध्न्य प्रकृति्योका
खत्व नहीं होता, क्योंकि सम्यक्त्वकी जपणाके अन्तिम समयमें उसका जघन्य अनुभाग होता है, इसलिए
उसके उक्त इक्कीस प्रक़तियोंका ही सत्र पाथा जाता है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व को मुख्यतासे सन्निकर्प
जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि इसके सम्यक्त्वका भी स्व होता है. जो सम्यक्स्वका सच्व
श्रजघन्प अनन्तगणुणे श्नुभागकों लिए हुए होता हे । झनन्तानुबन्धी क्रोघके जघन्य अनुभागवालके
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