तक्षशिला | Takshshila

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११ ) रह है । भारतीय संस्छति तथा भप्म एरिया संस्छृति भे दस्सकेनदर सें भारत के भन्य नगरों फी अपेक्षा सभ्यता फा अधिक संचध रषा दहै । इसी छिए तक्षश्षिरा-काय्य का मुख्य रूप दकर छिखने का कष्ट साध्य लोभ में सैघरण न कर सका । प्रस्तुत पुस्तक के विषय में मेरा चिचार है कि पसे काव्य के छिये आज क के प्रचलित छायाचाद भौर रदस्यवाद सय शभ्दादम्बर के वन भ भौर जमीन आमानं के क्व भिखाने वारी माव गाम्भीर्यं की धुर झड़ी में सुचोधगभ्प कोई भी धारावाहिक पथ रचना नहीं हो सकती । मुक्तक के कठेषर को ही रददस्पवृद भपना सका है। इस श्रकार की कचिता फेवर सहुशय परिश्रम संबेध है । इसीलिए प्राचीन छन्दों की पोषक में और साधारण यम्य विषयः वर्णन द्वारा दस काष्ण का प्रणयन हुआ है | मैं यह नहीं मानता कि मेरे चणेन में नवीनता है तथा भाव प्राजछता के ऊँचे शिखर पर मैं पहुँच गया हूँ और जो कुछ है चष मेरा अपना ही है । इस प्रकार का दात्रा तो कदासित थे से बढ़ा कवि भी नददीं कर सकता फिर मेरी तो गिनती ही क्या 1 परन्तु इतना कहने का साइस भवदय है कि वर्णन दौछी सेरी अपनी ही है । साथ ही विषया जुसारी वर्णन में मैंने वत्तियों को उसी स्वरूप में रखा है । छन्दों की परिभाषा का भी मैं पूर्णरूप से पक्षपाती नहीं हूँ । आावश्यकसाजुसार रेने छन्द शाख के नियमों का उप्लंघन भी किया है. परन्तु उनमें परिषतंन ण््तता नौर उच्तता से नहीं किया गया । ऐसा मेंते जान घुझ कर दी किया है । कुछ भी दो पूर्ण रूप से मैंने छम्द दास तथा भकार दाख का भाँख मीसकर पाकन नहीं किया । पाठक देखेंगे कि ऐसा करके मैंते पुस्तक की उपादेयता कौ घटाया नी है । तक्षदिला इस नाम के सम्ब ध में में दो पात कह बना उचित समझता हूँ । जब तक माय फोई भी काव्य देश या नगर के नाम पर नहीं बना । प्राघीन प्रणाछी के अनुसार मुझे फिसी बंध था व्यक्ति विधेष




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