पुजारी | Pujari

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Pujari by उमाकान्त - Umakant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पुजारी नी + न्क श्र ~~~ न नन 02 व क दो-चार दिन की दौड़-धूप में हो उसे शहर में एक अमीर के यहाँ पचास रुपये का ट्यूशन मिछ गया | छ्य शन भते ही उसने मुख्तार साहव का दरवाजा छोड़ दिया और कालेज के होस्ट में रहने छगा। उस घर की एक-एक चोज इसे अव काट खाने को दौड़ती थी । उसे महसूस होगा था जसे वौ की हर चीज उसे डॉट-डॉँट कर सुना रही हो-“तुम इस घर के आश्रित होः किसी के दिये हुए टुकड़ों पर जीनेवाला एक कुत्ता हो तुम ।” अतः उसका स्वासिमानी पुरुष अन्तर की इन फटकारों को सह न सका । इतने दिनो का स्नेह-वंघन नि्ममता पूर्वक एक दही भटके समे तोड़ डाखा उसने वोरा-विस्तर उठाकर होस्टट चख गया | एक दिन वीच सें वह आया लेकिन कला की माँ किसी दूसरे के आँगन गई हुई थी। त्रिवेणी ने मूक नेत्रों से एक बार का की ओर देखा तो कला की आँखें उसे देखकर वरस पड़ना चाहती थीं । जेसे पूछना चाहती हों--“इतने दिनों का वधा स्नेह-घंधन तुमसे तोड़ा केसे गया त्रिवेणी ¢ त्रिवेणी उसके चेहरे की उदासी ओर असीम वेदना मरी आँखों की मौन भाषा पढ़कर विचढ़ित हो उठा। वहाँ क्षण भर भी रुकना उसके छिये असझ हो गया। जव लौटकर जाने ठगा तो पीछे से कठा ने आवाज दी--“जरा सुनिये, रूमाङ यदीं छट गया है आापका--इसे तो रेते जाये !” त्रिवेणी के मन मे एक वार आया कि क्‌ दू इसे कि यह




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