वज्र रत्न | Vraj-ratna

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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{२ न्नर ज-ग्ठन क श्रन्तगेत आते हैं; कृष्ण की लीलाओं श्र चेष्टाओं का वणुंन वात्सल्य के श्रन्तर्गत और गोपियों के प्रंम का वणुन करने वाले पद दाम्पत्य रति के श्रन्तर्गत आते हैं । कतिपय निद्वानों का मत हैं कि सूर-साहित्य का मुख्यं रस शान्त है क्योंकि सरदास भक्तं कमि ये दयौर उन्होंने भक्ति के पद लिखे हैं । किन्तु यह भ्रान्त धारणा है । यह श्रावश्यक नहीं कि भक्त कवि जो कुछ लिखेगा, शान्त रस का ही लिखेगा । सरदास के केवज्ञ विनय के पद शान्त रस के झन्तगंत झाते हैं किन्तु पुष्टि-माग में दीक्षित होने के श्रनन्तर उन्होंने जो कुछ लिखा वह या तो वबात्सल्य रस का या शंगार रस का | काव्योत्कष की दृष्टि से ये ही बास्सल्य श्रौर श्वंगार के पद वि्ञेष महत्वपूरण । सुरदास मुख्यतः बात्सल्य तर श्ंगार के ही कवि हैं । 'शश्ेगार श्रौर वात्सल्य के दोत्रों में जहां तक इनकी दृष्टि पहुँची वहां तक दौर किसी कवि की नहीं । इन दोनों चेत्रों में ते इस महा केवि ने मानो श्रोरो के लिए कुछ छोड़ा ही नहीं | ** वात्सल्थ-वणन वल्लमाचार्य ने पुष्टि-सम्प्रदाय में कृष्ण के बाल-रूप की उपासना पर विशेष बल दिया हैं । श्रतः सभी पुष्टि-मार्गी भक्तों के लिए वात्पल्य-वर्णन श्रावश्यक हो . गया | सुरदास ने कृष्ण की चाल-लीलाशों का श्रत्यन्त विशद बणन किया हैं । उन्हें बाल मनो विज्ञान का गहरा ऑध्ययन या और शिशु की सूचम चेशं की श्रोर उनका ध्यान गया है । सूर की दण्टि से बाल-लीला एवं क्रोइ़ा से सम्बन्ध रखने वाला कोई भी पहलू अस्पूशम नहीं बचा है । उन्दरातं कृष्ण्‌ के बचपन करे ग्रसंख्य हृदय-ादी सुन्दर चित्र खींचे ' हैं, पालने में भ्रूतना, पैर का झंगूठा मुंह में डालना, घुटने, के अल चलना, सारे शरीर ूलि लगाना, मकवन खाना, चद्रमा को देख कर उसे लेने के लिए; मचलना; मिट्ी खाना, नहाते समय रूठ जाना आदि चेष्यश्रां के श्रसंख्य चिच्रहं। कुछ सयाने होने पर मक्खन चोरी, दान-लीला, मान लीला, गो चारण श्रादि क्रीड़ाश्रीं के श्नेक मनोहर चित्र वींचे गये हैं । सर ने जिन लीलाश्रों का चलन कया जान पड़ता है कि उनमें वे स्वयं . उच गये है । “वात्सस्य शरीर श गार के चंत्रों का जितना श्धिक उद्घाटन यूर ने. झपनो चंद शखों से किया है उतना किसी श्रौर कबि ने नहीं. इन छूत्रों का कोना कोना वे भकॉँक ब्याये ।**. चात्सल्य को रसत्व प्रदान करने में सूर का सबसे जड़ा हाथ है। पिश्यसाहित्य में कोई भी कवि इस रस के बणुन में सूर को शायद छाया भी नहीं छू सका है। इस छेत्र में सूरदास निर्विबाद रू प से श्रद्धितीय हैं । शास्त्रीय दृष्टि से देख तौ सूर के वात्सल्य रन का स्थायी मातर शिशु-विषयक रति है; ग्रा्य नंद श्रौर यशोदा है; श्रालम्बन कृष्ण है; उद्दीपन विभाव कृप्ण की नानाविध लीला हैं; अनुभाव है नंद-यशोादा का हँसना श्रौर पुलकित हाना श्रादि श्रौर सन्रारी भाव # श्राचाय गपचन्द्र शुक्त




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