हिंदी नाटक और रंगमंच | Hindi Natak Aur Rangmanch

Hindi Natak Aur Rangmanch by डॉ जगदीश गुप्त - Dr. Jagdeesh Guptडॉ रामजी पाण्डेय - Dr. Ramji Pandeyडॉ. राजकुमार वर्मा - Dr. Rajkumar Sharma

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डॉ जगदीश गुप्त - Dr. Jagdeesh Gupt

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डॉ. राजकुमार वर्मा - Dr. Rajkumar Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नाट्य-रचना में विईषक / १५ के कारण वह सहज ही नाटक में नायक का सहचर हो गया और नायक का सहचयें प्राप्त होने के कारण उसके महत्त्व पर किसी को प्रश्नचिह्न लगाने का साहस नहीं हुआ । नायक का सहचर होने के कारण वह उसके सभी कार्यों का दर्शक और श्रोता बन गया । जहाँ सुख में वह नायक से परिहास करता है वहाँ दुःख में वह उसे सांत्वना भी देता है । इस भाँति विदूषक जैसे नायक का एक सखा ही हो गया । सहाकवि कालिदास ने अपने सभी नाटकों में विदूषक को महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रदान की है । अभिज्ञानशाकुन्तलम्‌ में नायक दुष्यन्त के साथ विद्रूषक माढव्य दूसरे अंक के आरम्भ. में ही आता है । राजा के आखेट करने की आलोचना करता हुआ अपनी थकावट की बात बड़े स्वाभाविकढंग से करता है । वह राजा से परिहास भी करता है । जबे राजा शकुन्तला के प्रति आसक्ति की बात करता है तो विद्षक कहता है कि जैसे कोई मीठा छुहारा खाते-खाते ऊब कर इमली पर टूट पड़े उसी प्रकार आप भी रनिवास की सुन्दरियों को भूलकर शकुन्तला पर लट्ट हो गये हैं । इसी प्रकार विक्रमोवैशीयसू नाटक में राजा पुरुरवा के साथ विदूषक माणवक है जो राजा की प्रेम की बात कहने के लिए व्याकुल है। मालविकार्निमित्नमु में भी है जो राजा अग्नि- मित्र का परम मित्र है । विदूषकों की इस परम्परा से स्पष्ट है कि विटूषक राजा का अन्यतम सिल्ल सहायक परामशंदाता व्यंग्य करने वाला हँसने-हँसाते वाला तथा भोजन-प्रेमी विशेषकर लडडओं के प्रति बड़ी लालच-भरी दृष्टि से देखने वाला पात्र है । संस्कृत के अन्य नाटककारों ने भी इस परम्परा का यथावत्‌ पालन किया है। हिन्दी में भारतेन्दु हरिश्चन्द् ने जो मौलिक नाटक लिखे हैं उनमें भी विदूषक का स्थान महत्त्वपूर्ण है । वैदिकी हिसा हिंसा न भवति प्रहसन जो संवत्‌ १४३० में लिखा गया के दूसरे अंक में विदूषक आकर घोषणा करता है कि हे भगवन्‌ इस बक- वादी राजा का नित्य कल्याण हो जिससे हमारा नित्य पेट भरता है आदि । नीलदेवी नाटक में वसन्तक नामक घिदूषक पागल के रूप में आकर राजा सूयंदेव के वध की गुप्त बातें कहता है । अंघेर नागरी प्रहसन में तो अधिकांश पात्र ही विदूषक की भाँति हास्य की सृष्टि करते हैं । भारतेन्दु-युग की यह परम्परा द्विवेदी-युग में भी चलती रही । अन्तर यह हुआ कि द्विंवेदी-युगीन नाटकों में गम्भीर दृश्यों के सध्य में प्रहसन का ही एक दृश्य रखा गया जिसमें दशकों का मनो- रंजन होता रहे । दो-एक नाटककारों ने विदषक को एक विशिष्ट पात्र बनाया । राधंश्याम कथा- वाचक ने अपने नाटक वीर अभिमन्यु में राजा बहादुर जैसे पात्र से तारीफ तो यही है. प्रत वाक्य के अन्त में कहला कर हास्य उत्पन्न करने की चेष्टा की है । श्री बदरीनाथ भट्ट ने अपने प्रहसन चंगी की उम्मेदवारी में वजीर नाम के नौकर से हास्य उत्पन्न कराया है । श्रो जयशंकर प्रसाद जी ने संस्कृत नाटकों की परम्परा को फिर भी जीवन प्रदान करते . हुए विदूषक जैसे पात्र को पुनः रंगमंच पर उपस्थित किया है । अपने एकांकी नाटक एक घूंट में उन्होंने चंदुला का प्रवेश कराया है जिसने अपनी चिकनी खोपड़ी से एक घँट का विज्ञापन किया है । अज्ञातशत्रु नाटक में सम्राट उदयन के कायें-व्यापार में अनुरंजन के हेतु वसन्तक नाम का विद्रषक है जो जीवक के साथ व्यंग्य और परिहास करने में पटु है । स्कत्दगुप्त का विदूषक मुदूगल है जो अभिज्ञानशाकुन्तलम्‌ के माढव्य की प्रतिकृति ही ज्ञात होता है । वह भी चलते-चलते थक्त जाने की बात कहता है और भोजन के निमंत्रण के प्रति सदैव लालायित रहता है । वह गोविन्द गुप्त से कह भी देता है कि--- तब महाराजा-पुत्न बड़ी भूख लगी है । प्राण बचते ही भूख का धावा हो गया । शीघ्न रक्षा कीजिए । प्रसाद जी के




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