कंब रामायण भाग I | Kanmba Ramayana, Vol-I
श्रेणी : पौराणिक / Mythological
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
20 MB
कुल पष्ठ :
550
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
अवधनंदन - Avadhnandan
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एन० वी० राजगोपाल - N. V. Rajgopal
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मंगृल्णादरणं
काव्य-पीरिका
हम उस भगवान् की ही शरण मे ई, जो समस्त लोको का सर्जन; उनकी रक्षा और
उनका विनाश--ये तीनो क्रीडाएँ: निरंतर करता रहता है ।
वडे-वडे आत्मक्ञानी भी उक्त परमात्मा के पूणं स्वरूप को नही जानं सकने , उन
परमात्मा ( के तत्व ) को समकाना मेरे जैसे ( मंदबुद्धि ) व्यक्ति के लिए असंभव है;
फिर भी शाखो में प्रतिपादित न्निगुणो (सत्वः रज ओर तम ) मे--जिनका प्रतिरूप
बनकर वह परमात्मा ज्िमूर्ति के रूप में प्रकट हुआ; उनमें से प्रथम गुण के स्वरूप ( विष्णु )
भगवान् के कत्याणकारक गुणों के सागर मे गोते लगाना तो उत्तम ही दै}
जिन ज्ञानियों ने आरंभ तथा समासि में हरिः ॐ कहकर नित्य ओर अनन्त
वेदो को अधिगत (प्राप्त) कर लिया है ओर जौ सपने परिपक्व क्ञानके कारण संसार
त्यागी वन चुके है, वे महानुभाव उस ८ विष्णु ) भगवान् के उन चरणौ को, जो सन्मागै पर
चलनेबाले भक्तों के उद्धारक रैः छोडकर अन्य किसी से प्रेम नही करते ।
अकलंकं विजयश्री से विभूषित ( श्रीरामचन्द्र ) केगुणौका वर्णन करने की
अमिलाषा मैं कर रहा हूँ ; यह ऐसा ही है, जेसा कि कोई बिल्ली; घोर गर्जन करनेवाले
ऊँची तरंगों से भरे क्षीरसागर के निकट पहुँचकर उसके समस्त क्षीर को पी जाने की
अमिलाषा करे |
अभिशाप की वाणी से (उस दिन ) सप्त तालदृत्तौ को एक साथ भेदन कर
देनेवलि (श्रीराम ) की महान् गाथा आविभेत हो गई थी; उस गाथा को मधुर काव्य
के रूप में कहनेवाले ( वाल्मीकि ) की वाणी जिस देश में सुस्थिर हो चुकी दैः बही
मैं मी अपने ( अर्थगांमीय॑-हीन ) सरल तथा दुर्बल शब्दों मे दूसरा काव्य रचना चाहता हूँ
यह मी केता ( बुद्धिहीन ) प्रयास है !
१. ौच को मारनेवाशे व्याथ के प्रति वाल्मीकि के मुँह से जो अमिशाप-वचन निकल पडा था, वहीं
रामायण का प्रथम मगलाचरण भी हुआ |
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