कंब रामायण भाग I | Kanmba Ramayana, Vol-I

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Kanmba Ramayana, Vol-I by अवधनंदन - Avadhnandanएन० वी० राजगोपाल - N. V. Rajgopal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मंगृल्णादरणं काव्य-पीरिका हम उस भगवान्‌ की ही शरण मे ई, जो समस्त लोको का सर्जन; उनकी रक्षा और उनका विनाश--ये तीनो क्रीडाएँ: निरंतर करता रहता है । वडे-वडे आत्मक्ञानी भी उक्त परमात्मा के पूणं स्वरूप को नही जानं सकने , उन परमात्मा ( के तत्व ) को समकाना मेरे जैसे ( मंदबुद्धि ) व्यक्ति के लिए असंभव है; फिर भी शाखो में प्रतिपादित न्निगुणो (सत्वः रज ओर तम ) मे--जिनका प्रतिरूप बनकर वह परमात्मा ज्िमूर्ति के रूप में प्रकट हुआ; उनमें से प्रथम गुण के स्वरूप ( विष्णु ) भगवान्‌ के कत्याणकारक गुणों के सागर मे गोते लगाना तो उत्तम ही दै} जिन ज्ञानियों ने आरंभ तथा समासि में हरिः ॐ कहकर नित्य ओर अनन्त वेदो को अधिगत (प्राप्त) कर लिया है ओर जौ सपने परिपक्व क्ञानके कारण संसार त्यागी वन चुके है, वे महानुभाव उस ८ विष्णु ) भगवान्‌ के उन चरणौ को, जो सन्मागै पर चलनेबाले भक्तों के उद्धारक रैः छोडकर अन्य किसी से प्रेम नही करते । अकलंकं विजयश्री से विभूषित ( श्रीरामचन्द्र ) केगुणौका वर्णन करने की अमिलाषा मैं कर रहा हूँ ; यह ऐसा ही है, जेसा कि कोई बिल्ली; घोर गर्जन करनेवाले ऊँची तरंगों से भरे क्षीरसागर के निकट पहुँचकर उसके समस्त क्षीर को पी जाने की अमिलाषा करे | अभिशाप की वाणी से (उस दिन ) सप्त तालदृत्तौ को एक साथ भेदन कर देनेवलि (श्रीराम ) की महान्‌ गाथा आविभेत हो गई थी; उस गाथा को मधुर काव्य के रूप में कहनेवाले ( वाल्मीकि ) की वाणी जिस देश में सुस्थिर हो चुकी दैः बही मैं मी अपने ( अर्थगांमीय॑-हीन ) सरल तथा दुर्बल शब्दों मे दूसरा काव्य रचना चाहता हूँ यह मी केता ( बुद्धिहीन ) प्रयास है ! १. ौच को मारनेवाशे व्याथ के प्रति वाल्मीकि के मुँह से जो अमिशाप-वचन निकल पडा था, वहीं रामायण का प्रथम मगलाचरण भी हुआ |




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