इन्दिरा गांधी की पारिवारिक जीवन - कथा | Indira Gandhi Ki Parivarik Jeevan Katha

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Indira Gandhi Ki Parivarik Jeevan Katha by कृष्णा हठीसिंग - Krishna Hathisingh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अल्लाह्‌ का फजल १५ आज भी है, मगर उतना रूढ नहीं )। इस रस्म के पीछे खयाल यह था कि नैहर मे, जहां वह छोटे से बड़ी हुई, उसे अधिक आराम मिलेगा ओर उतना सकोच भी नही होगा जितना ससुराल में, सास-ननद और जेठानी-देवरान्नी के बीच, जिन्हें वह शादी के बाद से ही जानने लगी होती है। मगर पिताजी का आग्रह था कि हमारी लाड़ली बहू की पहलौठी हमारे घर पर ही हो । हम खुद सारे इन्तजाम की देखभाल कर सकेंगे और मुल्क के बेहतरीन डाक्टर और नर्से और नई-से-नई चिकित्सा-सुविषाएं मुहैय्या की जा सकंगी। इसलिए कमला आनन्द भवन में ही रही । काफी देर बाद, मुफे ठगा, जैसे बरसों बीत गए हों । डाक्टर लोग बाहर आये । आगन के पार भागती हुई मैं वहां ठीक समय पर पहुंच गई थी, क्योकि प्रसव करानेवाला स्काटिश डाक्टर भाई से कह रहा था, “श्रीमानजी, इतनी-सी मुनिया बेटी है 1 सुनते ही अम्मा के मुह से निकला, “अरे, होना तो लड़का चाहिए था ! ” वह चाहती थी कि उनके इकलौते लाल के घर लड़का हो। अम्मां की बात सुनते ही पास-पडोस मे खड़ी महिलाओ के चेहरे लटक गए । अम्मां का इस तरह जी छोटा करना पिताजी को जरा भी न सुह्दाया । वह भुझला उठे और लगे झिड़कने, “खबरदार, ऐसी बात मुह से निकाली तो । कभी ऐसा खयाल भी मन में नही लाना चाहिए । क्या हमने कभी मपने बेटे और क्रेटियों मे कोई फकं किया है ? क्या तुम सभी- से एक-जेसी मुहब्बत नही करती ? देखना तो सही, जवाहर को यह्‌ वेटी हजारों बेटों से सवाई होगी ।” वह मारे गुस्से




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