धन्य भिक्षु | Dhanay Bhikshu
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
206
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)धन्य भिक्षु |
जन-समुदाय--होहल्ला करता नासिक कहीं बहुत दूर रह गया था,
दीसठा भी न था । वेड के सहारे सिर रख उतने आाँखें मींदी । सन्तोष
को साँस ली ।
पकान के कारण भ्रग-झग पत्यर हो गये थे । नोद भी न झाठी
थी--चलना मी मुरिकिल था । भूख इतनी किपेट भें गोदावरी का
पानौ भो खौल-लौलकर वाप्प-ता हो गयाया 1 वह् कराह रहा था ।
भूख बटती जाती थी । उसने चारों भर दृष्टि दौड़ायी--भास-पास
कोई ग्राम न था । झाते-जाते भादमों भी न दोखते थे । कही दूर--
गौवो का समूह् धूल उटाता जा रहा धा । गोधूती बेला यो-- पेटो
की पक्तिके पीछे धुप उड रहा या-्राम क कल्पना कौजा
सकती पो-पर दूते का अनुमान कर ्मण्निव्मां का माया नीचे
भूक गया1
बे नदी में उत्तरकर अत्दौ-जर्द पानो रोने लगा-जंसे पानी
से भूख मिंट जाती हो । भूख भिटे या न मिटे सान्त्वन श्रवदय भिलती
है। वह उठ नदी का किनारा छोड़कर चलने लगा 1 नासिक के समी-
पस्य हरे-भरे खेत खतम दो चुके थे । चारों ओर श्रव ऊवड़-खाबड़
जमीन थो--रह-रहुफर छोटी-छोटी गोल पहाड़ियों उठ खड़ी होती
यौ । खेत उपेक्षित मालूम होते थे ।
समय बोतता जाता था--ज्यो-ज्यो वह चलता जाता, यह घूल
भमतौ जाती--भरन्यकार बढ़ता जाता । उसके पैरों में घुस्ती भाठी
जाती । भूख भोर भय उसको कहीं खोचे ले जा रहे ये ।
दैरियो का जंगल था--पर बैरियाँ न थी । खरगोश, मयूर प्रादि,
इघरनवघर भटकते-भटकंते, निकलते भौर घले जाते । जंगल की नीरवता
में एक विधित्र प्रकार की कार शुरू हो गई यी--मूक पेद्-यत्ते,
तुठतता-तुतसाकर बोलने का प्रयत्न करने लगते थे । भर्निवर्मा के हृदय
को भड़कन बढ़ती जाती थी ।
उसने भपना बास्य-काल वन-वनास्तर में काटा था । नोरव एकान्त
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