धन्य भिक्षु | Dhanay Bhikshu

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Dhanay Bhikshu by रमेश चौधरी - Ramesh Chaudhary

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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धन्य भिक्षु | जन-समुदाय--होहल्ला करता नासिक कहीं बहुत दूर रह गया था, दीसठा भी न था । वेड के सहारे सिर रख उतने आाँखें मींदी । सन्तोष को साँस ली । पकान के कारण भ्रग-झग पत्यर हो गये थे । नोद भी न झाठी थी--चलना मी मुरिकिल था । भूख इतनी किपेट भें गोदावरी का पानौ भो खौल-लौलकर वाप्प-ता हो गयाया 1 वह्‌ कराह रहा था । भूख बटती जाती थी । उसने चारों भर दृष्टि दौड़ायी--भास-पास कोई ग्राम न था । झाते-जाते भादमों भी न दोखते थे । कही दूर-- गौवो का समूह्‌ धूल उटाता जा रहा धा । गोधूती बेला यो-- पेटो की पक्तिके पीछे धुप उड रहा या-्राम क कल्पना कौजा सकती पो-पर दूते का अनुमान कर ्मण्निव्मां का माया नीचे भूक गया1 बे नदी में उत्तरकर अत्दौ-जर्द पानो रोने लगा-जंसे पानी से भूख मिंट जाती हो । भूख भिटे या न मिटे सान्त्वन श्रवदय भिलती है। वह उठ नदी का किनारा छोड़कर चलने लगा 1 नासिक के समी- पस्य हरे-भरे खेत खतम दो चुके थे । चारों ओर श्रव ऊवड़-खाबड़ जमीन थो--रह-रहुफर छोटी-छोटी गोल पहाड़ियों उठ खड़ी होती यौ । खेत उपेक्षित मालूम होते थे । समय बोतता जाता था--ज्यो-ज्यो वह चलता जाता, यह घूल भमतौ जाती--भरन्यकार बढ़ता जाता । उसके पैरों में घुस्ती भाठी जाती । भूख भोर भय उसको कहीं खोचे ले जा रहे ये । दैरियो का जंगल था--पर बैरियाँ न थी । खरगोश, मयूर प्रादि, इघरनवघर भटकते-भटकंते, निकलते भौर घले जाते । जंगल की नीरवता में एक विधित्र प्रकार की कार शुरू हो गई यी--मूक पेद्-यत्ते, तुठतता-तुतसाकर बोलने का प्रयत्न करने लगते थे । भर्निवर्मा के हृदय को भड़कन बढ़ती जाती थी । उसने भपना बास्य-काल वन-वनास्तर में काटा था । नोरव एकान्त




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