आयार सुत्त | Aayar Sutt

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उदयचन्द्र जैन - Udaychnadra Jain

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चन्द्रप्रभ - Chandraprabh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१३. १४ १६ १७ रेट, २०. २१. २२ २३ र द्वितीय उद्देशक लोक मे मनुप्य पीडित्त, परिजीर्ण, सम्बोचिरहित एव अज्ञायक है । इस लोक मे मनुष्य व्ययित है 1 . तू यत्र-तत्र पृथक्‌-पृथक्‌ देख । आतुर मनुष्य [ पृथ्वीकायको] दुखदेते है। [ पृथ्वीकायिक ] प्राणी पृथक-पृथक है । त उन्दे पृथक-पृथक रज्जमान।हीनभावयुक्त देख । एसे कितने ही भिक्षुक स्वामिमानपूरवंक कहते है -- 'हम अनगार है । जो नाना प्रकार कै शस्त्रो द्वारा पृथ्वी-कमं की क्रियाम सलग्न होकर पृथ्वीकायिक जीवो की अनेक प्रकार से हिसा करते है । निश्चय ही, इस विषय मे भगवान्‌ ने प्रजञापूवक समाया है । गौर इस जीवन के लिए प्रशसा, सम्मान एव पूजा के लिए, जन्म, मरण एव मुक्ति के लिए दुखो से छूटने के लिए [ प्राणी कर्म-बन्घन की प्रवृत्ति करता है । ] वह स्वय ही पृथ्वी-णस्त्र ( हल आदि ) का प्रयोग करता है, दूसरों से पृथ्वी-शस्त्र का प्रयोग करवाता है और पृथ्वी-णस्त्र के प्रयोग करनेवाले का समथेन करता है । वह्‌ हिमा अहित के लिए है और वही अवोधि के लिए है । वह साघु उस हिंसा को जानता हुआ ग्राह्म-मार्ग पर उपस्थित होता है । शस्त्र-परिज्ञा




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