आयार सुत्त | Aayar Sutt
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
238
श्रेणी :
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उदयचन्द्र जैन - Udaychnadra Jain
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चन्द्रप्रभ - Chandraprabh
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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द्वितीय उद्देशक
लोक मे मनुप्य पीडित्त, परिजीर्ण, सम्बोचिरहित एव अज्ञायक है ।
इस लोक मे मनुष्य व्ययित है 1
. तू यत्र-तत्र पृथक्-पृथक् देख । आतुर मनुष्य [ पृथ्वीकायको] दुखदेते
है।
[ पृथ्वीकायिक ] प्राणी पृथक-पृथक है ।
त उन्दे पृथक-पृथक रज्जमान।हीनभावयुक्त देख ।
एसे कितने ही भिक्षुक स्वामिमानपूरवंक कहते है -- 'हम अनगार है ।
जो नाना प्रकार कै शस्त्रो द्वारा पृथ्वी-कमं की क्रियाम सलग्न होकर
पृथ्वीकायिक जीवो की अनेक प्रकार से हिसा करते है ।
निश्चय ही, इस विषय मे भगवान् ने प्रजञापूवक समाया है ।
गौर इस जीवन के लिए
प्रशसा, सम्मान एव पूजा के लिए,
जन्म, मरण एव मुक्ति के लिए
दुखो से छूटने के लिए
[ प्राणी कर्म-बन्घन की प्रवृत्ति करता है । ]
वह स्वय ही पृथ्वी-णस्त्र ( हल आदि ) का प्रयोग करता है, दूसरों से
पृथ्वी-शस्त्र का प्रयोग करवाता है और पृथ्वी-णस्त्र के प्रयोग करनेवाले
का समथेन करता है ।
वह् हिमा अहित के लिए है और वही अवोधि के लिए है ।
वह साघु उस हिंसा को जानता हुआ ग्राह्म-मार्ग पर उपस्थित होता है ।
शस्त्र-परिज्ञा
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