लोकतन्त्र का लक्ष्य | Loktantra Ka Lakshya
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
232
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)लोकतंत्र कै बुनियादी सिद्धान्त १७
बधुत्व की ओर आकृष्त करता है मौर राजनैतिक सगठन राष्ट्रीयता की
ओर । जातीय सगठन राष्ट्र के भी टुकड़े कर डालता है । औद्योगिक
सगठन अपने-अपने वर्ग के आर्थिक स्वाथं को सर्वोपरि मानते है । वतंमान
मानव सबसे सम्मिलित होता है और परस्पर विरोधी सकेत पाकर
किसी के प्रति निष्ठावान नहीं रहता । तात्कालिक स्वार्थ उसका मुख्य
प्रेरक बन जाता है ।
लोकतत्र का कथन है कि सगठन व्यक्ति के लिए है, व्यक्ति सगठन
के लिए नहीं है । जो सगठन व्यक्तित्व के विकास मे सहायक है वह
उपादेय है और दूसरा हेय । कितु यहा व्यक्तित्व सकरुचित स्वार्थों एव
परिधियों मे सीमित नहीं है ।
वाद्य तथा आन्तरिक आतको से वचने के लिए राज्य-सस्था
अस्तित्व मे आई । इसका सचालन शारीरिक दण्डके आधार पर होता
आया है । इस पर प्रइन उठा कि दण्ड-प्रयोग का अधिकार किसके हाथ
मे रहना चाहिए । इस विषय मे विचारको ने अनेक प्रकार की मान्यताए
उपस्थित की है । मनु का कथन है कि दण्ड के सम्बन्ध में नियमों का
निर्माण त्यागी, ऋषियों या तत्त्व-चिन्तको के हाथ मे रहना चाहिए मौर
प्रयोग क्षत्रियो के हाथमे । युनान के दाकनिक प्लेटो ने भी इसी प्रकार
के विचार प्रकट किये है । उसने समाज को तीन भागों मे विभक्त किया
है-- (१) विचारक (२) संनिके तथा (३) जनसाधारण । शासन का
काये प्रथम दो वर्गों के हाथ मे रहना चाहिए । पहले वर्ग का कार्य है
व्यवस्था सम्बन्धी नियमो सौर सिद्धान्तोका निर्माण और दूसरे का
कार्य हैं उनका पालन कराना । शास्त्रीय दृष्टि से इस प्रकार की
व्यवस्थाए होने पर भी व्यावहारिक रूपमे राज्य का सचालन प्राय
क्षत्रिय या; संनिक वर्ग के हाथ मे ही रहा है । उसमे भी जो मुखिया
होता था वह सभी प्रकार के अधिकार अपने हाथ मे कर लेता था ।
नियम बनाने तथा उनका पालन कराने की सर्वोच्च सत्ता उसी के पास
रहती थी । वही सर्वोच्ज विचारक होता था, वही न्यायाधीश और वही
दण्डनायक ।
जीवन मे ज्यो-ज्यो स्थिरता ओौर सुरक्षा आती गई, दण्डशक्ति का
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