लोकतन्त्र का लक्ष्य | Loktantra Ka Lakshya

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Loktantra Ka Lakshya by जैन आचार्य श्री विजय वल्लभ सूरी - Jain Aacharya Shri Vijay Vallabh Suri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लोकतंत्र कै बुनियादी सिद्धान्त १७ बधुत्व की ओर आकृष्त करता है मौर राजनैतिक सगठन राष्ट्रीयता की ओर । जातीय सगठन राष्ट्र के भी टुकड़े कर डालता है । औद्योगिक सगठन अपने-अपने वर्ग के आर्थिक स्वाथं को सर्वोपरि मानते है । वतंमान मानव सबसे सम्मिलित होता है और परस्पर विरोधी सकेत पाकर किसी के प्रति निष्ठावान नहीं रहता । तात्कालिक स्वार्थ उसका मुख्य प्रेरक बन जाता है । लोकतत्र का कथन है कि सगठन व्यक्ति के लिए है, व्यक्ति सगठन के लिए नहीं है । जो सगठन व्यक्तित्व के विकास मे सहायक है वह उपादेय है और दूसरा हेय । कितु यहा व्यक्तित्व सकरुचित स्वार्थों एव परिधियों मे सीमित नहीं है । वाद्य तथा आन्तरिक आतको से वचने के लिए राज्य-सस्था अस्तित्व मे आई । इसका सचालन शारीरिक दण्डके आधार पर होता आया है । इस पर प्रइन उठा कि दण्ड-प्रयोग का अधिकार किसके हाथ मे रहना चाहिए । इस विषय मे विचारको ने अनेक प्रकार की मान्यताए उपस्थित की है । मनु का कथन है कि दण्ड के सम्बन्ध में नियमों का निर्माण त्यागी, ऋषियों या तत्त्व-चिन्तको के हाथ मे रहना चाहिए मौर प्रयोग क्षत्रियो के हाथमे । युनान के दाकनिक प्लेटो ने भी इसी प्रकार के विचार प्रकट किये है । उसने समाज को तीन भागों मे विभक्त किया है-- (१) विचारक (२) संनिके तथा (३) जनसाधारण । शासन का काये प्रथम दो वर्गों के हाथ मे रहना चाहिए । पहले वर्ग का कार्य है व्यवस्था सम्बन्धी नियमो सौर सिद्धान्तोका निर्माण और दूसरे का कार्य हैं उनका पालन कराना । शास्त्रीय दृष्टि से इस प्रकार की व्यवस्थाए होने पर भी व्यावहारिक रूपमे राज्य का सचालन प्राय क्षत्रिय या; संनिक वर्ग के हाथ मे ही रहा है । उसमे भी जो मुखिया होता था वह सभी प्रकार के अधिकार अपने हाथ मे कर लेता था । नियम बनाने तथा उनका पालन कराने की सर्वोच्च सत्ता उसी के पास रहती थी । वही सर्वोच्ज विचारक होता था, वही न्यायाधीश और वही दण्डनायक । जीवन मे ज्यो-ज्यो स्थिरता ओौर सुरक्षा आती गई, दण्डशक्ति का




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