चिन्तन - मनन अनुशीलन | Chintan Manan Anusilan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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धर्म और धर्मश्रम मे आकाश-पाताल जितना अन्तर है। गधे को, सिह की चमड़ी पहना दी जाय तो गधा कोई सिह नहीं बन जाएगा। भले ही सिह-वेशधारी गधा थोडे समय के लिए अपने-आपको सिह के रूप मे प्रकट करके खुश हो ले पर अन्त मे तो गधा, गधा सिद्ध हुए बिना रहने का नहीं ! इसी प्रकार धर्मभ्रम और धर्मान्धता को भले ही धर्म का चोगा पहना दिया जाय, लेकिन अन्त मे धर्मभ्रम का क्षय और धर्म की जय हुए बिना नहीं रह सकती | धर्म को धर्मभ्रम ओर धर्मभ्रम को धर्म मान तेने के कारण बड़ी गडबडी मची है | स्वर्णकार मिट्टी मे मिते स्वर्णं को ताप, कष ओर छेद के द्वारा मिट्टी से अलग निकालता है, इसी प्रकार विवेकीजनो को चाहिए कि वे धर्मभ्रम की मिट्टी मे मिले हुए धर्म-स्वर्ण को ताप, कष ओर छेद के दारा अलग कर डाले। यह कहने की तो आवश्यकता ही नहीं कि मिट्टी, मिट्टी है और सोना, सोना है। लेकिन मिट्टी मे मिले सोने को सच्चा स्वर्णकार ही अलग कर सकता है| इसी प्रकार धर्म, धर्म हे ओर धर्मभरम, धर्मभ्रम हे । मगर धर्मभ्रम मे मिले धर्म को शोधने का कार्य सच्चे धर्मसशोधक का हे। धर्म जब धर्मभ्रम से पृथक्‌ कर दिया जायेगा तभी वह अपने उज्ज्वल रूप मे दिखलाई देगा ओर तभी उसकी सच्ची कीमत आकी जा सकेगी | जीवन में धर्म का अत्यन्त महत्त्वपूर्णं स्थान है, यहा तक कि धर्म के बिना जीवन-व्यवहार भी नहीं चल सकता | जो लोग धर्म की आवश्यकता स्वीकार नहीं करते, उन्हे भी जीवन मे धर्म का आश्रय लेना ही पड़ता है, क्योकि धर्म का आश्रय लिये बिना जीवन-व्यवहार निभ ही नहीं सकता है उदाहरणार्थ-- पाच ओर पाच दस होते है, यह सत्य है और सत्य धर्म है। जिन्हें धर्म आवश्यक नहीं मालूम होता उन्हे यह सत्य भी अस्वीकार करना होगा | अहिंसा कायरों का धर्म नहीं अत्याचार करना जैसे मानसिक दोर्वल्य है, वैसे ही कायरता धारण करके हृदय मे जलते हुए, ऊपर से अत्याचार सहनं कर लेना भी मानसिक दौर्बल्य हे! परन्तु वास्तविक शाति धारण कर तेना मानसिक उच्चता ओर चिन्तन-मनन अनुशौलन्‌^१65




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