रोजा लुक्जेम्बुर्ग | Roza Lukjemburg
श्रेणी : जीवनी / Biography
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
27 MB
कुल पष्ठ :
192
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी - Shriramvriksh Benipuri
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)८ रज्ञा छक्नेम्बुरौ
महान अपराध हे । आप महान से महान कार्य क्यों नहीं करने जा रहे हों, अगर
अपनी असावधानी से एक लड़के को धक्का देकर गिरा दिया; तो समझिये, आपसे
एक अक्षम्य अपराध हो गया | ”?
वह भटीर्भोति जानती थी कि राजनीतिक संघर्षो की कीमत मनुष्य को
जीवन ओर आनन्द से ही चुकानी पड़ती है, ओर कोमल भावनाओं के बावजट्,
ऋान्तिकारी कार्यों में दिल को पत्थर बनाना ही पड़ता है । अगर उससे उद्देदय की
प्राप्ति मे शीघ्रता आ सके और बाद की उससे भी अधिक तकलीफों का निवारण
किया जा सके, तो राजनीतिक संघर्षों में जो आवदयक और उमनिवार्य्य हों, वैसा
बलिदान देने में वह कभी नहीं हिचकती थी। वह इतिहासके प्रति अपनी जिम्मेवारी
को समझती थी, लेकिन उसकी ओट लेकर वह आवदयक संघर्षो से वचना नहीं
चाहती थी । वह जनता को इस धोखे मे नहीं रख सकती थी कि उसके जुएँका बोझ
उन बलिदानोँ से हल्का है, जिनका आलिंगन करके ही वे उस जुरएँ को कंधे से उठा-
कर फेंक सकते हैं । कार्य मेँ ज्ञिम्मेवारी का ज्ञान आवश्यक है, परिस्थिति को अच्छी
तरह तोलना जरूरी है, आवश्यक निर्णय के पदे उसके परिणामोंका विचार कर
टेना सुनासिव है-किन्तु; जरूरत पड़े तो दूसरों को बलिदान के छिये सानन्द आह्वान
करना ओर अपने को भी खुशी खुशी बलिबेदी पर चढ़ा देना-एक क्रान्तिकारी नेता
का यह कतव्य है, वह ऐसा मानती थी ।
अपना मूल्य वह समझती थी ओर इस ज्ञान से महान कार्य्यो के सम्पन्न करने
का आत्मविद्वास उसमें भरा पूरा था । इस आत्मविच्वासके साथ दुर्द॑मनीय कार्थ-
शक्ति से वह किसी काम में जुट जाती थी | उसके हृदय मे भावना की चिनगारी
जरती रहती थी, किन्तु उसके हृदय पर हमेशा ही मस्तिष्क का राज्य था । राज-
नीतिक नियो को वह पहके दलीखँ की कसौटी पर कसती थौ, फिर सिद्धान्त कौ `
नज़र से परखती थी, तब कहीं उसे कार्य्यमें लाती थी। विचार ओर कार्य की अदू
एकता उसमें दीख पड़ती थी ।
रोज़ा छक््ज़ेम्बुर्ग के स्थि समाजवाद एक आशा-प्रदीप ही नहीं था, बस्कि
उसके सब प्रयत्नो का एकमात्र चिन्दु था } ठेनिन की तरह वह किसी भी परिणाम
को स्वीकार करने मे जरा मी नदीं हिचक खाती थी, बात कि बह तर्कसंगत और
अनिवाय हो | चाहे कैसा भी कड़वा धूट हो, उसे पीने में जरा भी उसमे सुकर
नहीं थी । अपने विचारों में किसी समझौते की गुंजायश वह नहीं रखती थी और
उसके विन्गर एवं कामे जरा भी विरोधाभास नहीं दीखता था ।
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