सूर और उनका साहित्य | Sur Aur Unaka Sahithya

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Sur Aur Unaka Sahithya by हरबंशलाल शर्मा - Harbanshlal Sharma

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about हरबंशलाल शर्मा - Harbanshlal Sharma

Add Infomation AboutHarbanshlal Sharma

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
चतुथें संस्करण को भूमिका सुर और उनका साहित्य का यह चौथा संस्करण है परन्तु खेद हैं कि समयाभाव के कारण कुछ आवश्यक सशोधन तथा परिवध॑न इस संस्करण में नहीं हो सके । इधर विद्वानों ने सुर साहित्य पर अनेक हप्टियों से विचार किया है तथा भाधुनिक परिवेश में भी सुर-साहिंत्य को आंकने का प्रयास किया गया है । सुर-साहित्य का विश्लेषण चाहे आधुनिक मनोविज्ञान के सिद्धान्तों के आधार पर किया जाय चाहे सौन्दय॑शास्त्र के परिप्रेक्ष्य मे--इस तथ्य को नही नकारा जा सकता कि सुर-साहित्य मे वे शाश्वत तत्व निहित है जो आलोचना के किन्ही भी नवीनतम सिद्धान्तों की कसौटी पर खरे उतते हैं। कुछ तथाकथित नवीनतम सिद्धान्त तो ऐसे हें जो केवल मान्यता की कोटि मे ही आ सकते है और जिनकी आयु एक दशाब्द से अधिक नही होती । इधर इस प्रकार के पाश्चात्य सिद्धान्तों के आधार पर सुर का अध्ययन प्रस्तुत करते हुए किसी आलोचक ने सुर- साहित्य को दमित वासनाओं की अभिव्यक्ति कहा है तो किसी ने उसे निर्वेयक्तिक काव्य के रूप में देखा है । मेरी तो आज भी यही मान्यता है कि कवि की मानसिक अनुभूति ही कविता का रूप धारण करती है। सुर का काव्य भावना का काव्य है। इसलिए तदुभाव-भावित होकर ही आलोचक सुर के काव्य का सही विश्लेषण कर सकता है । सुर का काव्य भावों का उमडता हुआ ऐसा सागर है जिसमें रस की थाह पाना दुस्तर कार्य है । असल बात तो यह है कि सुर के भाव ही सान्द्रावास्था में रस की कोटि तक पहुँच जाते है । भावों का ऐसा तीव्र एवं व्यापक अभिव्यजन जो रस के सारे शास्त्रीय अंगों से पुष्ट है सुर के अतिरिक्त और किसी कवि के काव्य मे नही मिलता । जिस प्रकार उमडती हुई सरिता अपने कूल-नियमित सरल पथ मे प्रवाहित होने मे असमथं होकर नवीन-नवीन मा खोज लेती है उसी प्रकार अनुभूति और भाव्‌कता के चरम विकास की स्थिति में कवि के कण्ठ से निकली हुई भाव-रस-धारा अनेक मार बनाकर विस्तृत क्षेत्र में फैल जाती है । किसी एक मार्ग के अनुसन्धान से मुल स्रोत तक नही पहुँचा जा सकता । ठीक यही स्थिति सुर साहित्य की है । इसलिए वह अभी भी अनुसंधेय तथा गवेष्य है। मागंशीर्ष शुक्ल श्रीगणेश चतुर्थी २०२८ बि० हरबंशलाल शर्मा २१ नवस्वर सच १८४७१ ई० १४




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now