आत्म कथा | Atma Katha
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
226
श्रेणी :
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महादेव देसाई - Mahadev Desai
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हरिभाऊ उपाध्याय - Haribhau Upadhyaya
हरिभाऊ उपाध्याय का जन्म मध्य प्रदेश के उज्जैन के भवरासा में सन १८९२ ई० में हुआ।
विश्वविद्यालयीन शिक्षा अन्यतम न होते हुए भी साहित्यसर्जना की प्रतिभा जन्मजात थी और इनके सार्वजनिक जीवन का आरंभ "औदुंबर" मासिक पत्र के प्रकाशन के माध्यम से साहित्यसेवा द्वारा ही हुआ। सन् १९११ में पढ़ाई के साथ इन्होंने इस पत्र का संपादन भी किया। सन् १९१५ में वे पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आए और "सरस्वती' में काम किया। इसके बाद श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के "प्रताप", "हिंदी नवजीवन", "प्रभा", आदि के संपादन में योगदान किया। सन् १९२२ में स्वयं "मालव मयूर" नामक पत्र प्रकाशित करने की योजना बनाई किंतु पत्र अध
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)विवाहू ओर मसांस-भक्षण १७
रहे है इसका कारण उनका मांसाहार है । में कितना हट्टा-कट्टा
और मजबूत हूं, और कितना दौड़ सकता हूँ यह तो तुम्हे मालूम
है ही । इसका कारण भी मेरा मांसाहार ही है। मांसाहारी को
फोड़े-फुंसी नहीं होते, और हुए तो जत्दी अच्छे हो जाते हैं । हमारे
अध्यापक मांस खातें हैं, इतने-इतने मश हुर आदमी खाते हैं, सौ
क्या सव बिना सोचे-समझे ही ? तुम्हें भी जरूर खाना चाहिए ।
खाकर तो देखो कि तुम्हारे वदनमें कितनी ताकत आ जाती है ।
ये सारी दलीलें कोई एक दिनमें ही सामने नहीं आई । अनेक
उदाहरणोंसे सजाकर ये कई वार पेश की गई। मंझछे भाई तो
फिसल चुके थे । उन्होंने भी इन बातोंका संमथेन किया, अपने
भाई और इन मित्रके मुकावलेमें मे दुबल था । उनका बदन
अधिक गठीला और दरीर-वल मुझसे वहुत अधिक था । वे
साहसी थे । इन मित्रकें पराक्रमकं काम मुझे मोह लेते थे । वह
जितना चाहे दौड़ सकता था । चाट मी वहत ततेन थी 1 कवी ओौर
ऊंची.कूदानमे उसे कमाल हासिल था । मार सहनेकी शन्ति मी
वैसी ही थी । इस शर्वित्तका प्रदर्यन भी वह समय-समय पर करते
थे । अपने अन्दर जिस दाक्तिका अभाव होता है उसे दसरेमे
देखकर मनुप्यका आश््चर्यास्वित्त होना स्वाभाविक है । यही मेरे
विपयमें हुआ 1 भआाइचर्यसे मोह पैदा हुआ । मुझमें दौड़नेकी
दाक्ति नहीं के वरावर थी । मेरे मनने कहा, मे भी इस भिक
समान घलवान हो जाऊं तो क्या अच्छा हो ?
दूसरे, में बड़ा डरपोक था । चोर, भूत, सांप आदिकें भयसे
भयभीत चना रहता था, रातको अकेले कहीं जानेकी हिम्मत
नहीं पडती 1 अंधेरेमें कटी न जा सकता या 1 रोदनीकं चिना
सोना भी प्राय: असम्भव-सा था ) इधरसे मूत आ जाय, उधरसे
चार भा जाय और कहीसे सांप निकल आवे तो ? यह डर यना
कि इसलिए रोधनीका होना तो आवश्यक या । इघर अपनी
के सामने भी, जोकि पास ही सोती और अब कुछ-फुछ
युवती हो चली थी, ये भयकी वार्ते करते हुए संकोच होता,बरयीकि
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