गद्य-पथ [खंड 1] | Gadya Path [Khand 1]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रवेश रे जहाँगीर तथा शाहजहाँ का सुब्यवस्थित राज्यकाल; जिनकी निर्दन्द छत्र-छाया में उनकी शान्ति-ग्रियता, कला-प्रेम तया शास्न-पवरन्ध-रूपी विपुल खाद्य-सामग्री पाकर चिरकाल से पीड़ित भारत एक वार फिर विविध ऐश्वर्यों में लदलहा उठा । राजा महाराजाओं ने स्वयं श्रपने हाथों से सड्ीत, शिल्प, चित्र तथा काव्य-केसा के मूलौ कौ सचा, केज्ञामिदो को तरह-तरहं से प्रोत्साहित किया ! सद्धीते की श्राकाश-लता ्रनन्त-फङ्कासे मे चिल-चिल कर समस्त वायु-मरडल मखा गडः मृग चना भूल गये, मृगराज .उने पर टूटना । तानसेन की सुधा- सिब्चित रग-रागिनियां--जिन्द कदं रोपनाग सुन ले तो उसके सिर पर रखे हुए; घरा मेरे डाँवाडोल हो जायें; इस भय से विधाता ने उसे कान नहीं दिये-- श्रमी तक हमारे वसन्तोत्सवं में कोकिलाओओं के कण्टों से मधघुखवण करती हैं । शिल्प तथा चित्रकलाश्ों की पावस-दरीतिमा ने सर्वत्र भीतर-चाहर राजप्रासादों को लपेट लिया । चलुर चित्रकारों ने आपने चित्रों में भावों की सूदमता श्र सुकुमारता, सुरें की सजधज तथा सम्पूर्णता, जान पड़ता है, पनी अनिमेष- चितवन की अचब्वल-वरुनियों, श्रपने भाव-मुग्ध हुदय के तन्मय रोश्यों से चित्रित की । शहजाद दास का. श्य्रलवमः चिकार के चमत्कार की चकाचौध दै । शिल्पकला कै ग्रनेक शतदल दिल्ली, लखनऊ, श्रागरा आदि शहरों में द्मपनी सम्पूरतां तथा उकं में श्रमर और ग्रम्लान खढे ईह; ताजमहल में मानो रिल्पकला दी गला कर दाल दी गई । देव, बिहारी, . केशव ्रादि कवियों के श्निन्य-पुष्पोद्यान श्री तक अपनी श्रमन्द्-सौरम तथा नन्तं मधुसे रशि-सशि भरो को मग्ध कर रहे हैं;--यहाँ कूल; केंलि, कछार, ऊुंखो में, सर्वत्र असुम-वसन्त शोमित है । बीचों बीच बहती दुई नीली यमुना मे, उसकी फेनोञ्ज्वल चब्चल तस्ड्डों-सी, असंखय सुकुमारियाँ श्याम के श्रतुराग मे द्धम रदी ई । वह्यं विजली छिपे-छिपे अ्रभिसार करती, भौरि सन्देश पहुँचाते, चाँद चिनगारियाँ चरसाता है । वहाँ छद्दों ऋतुएँ कल्पन के बहुर्टी-पट्टों में उड़कर, स्वर्ग की श्रप्सरा्यों की तरह; उस नन्दन-वन के चासं शरोर श्रनवरत परिमा कर रदी र । उस “चन्दिकाधौतहरम्या वसतिर- लका के त्रास-पास “प्रानन-द्मोप-उजास से नित ग्रति पूनौदी रहती टै)




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