जैन दर्शन में आचार मीमांसा | Jain Darshan Men Aachar Mimansa

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Jain Darshan Men Aachar Mimansa by छगनलाल शास्त्री - Chaganlal Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कील ओर श्रुत = एक समय भगवान्‌ राजख्ह म खमवखत ये} गौतम स्वामी श्राए। भगवान्‌ को वंदना कर वौल्े--भरवन्‌ { कद अन्य यूथिक कहते हैं--शील ही श्रेय है, कई कहते हैं श्रुत ही श्रेय है, कई कहते हैं शील श्रेय है और श्रुत मी श्रेय है, कई कहते हैं श्रुत श्रेय है श्रौर शील भी श्रेय है; इनमें कौनसा अभिमत ठीक है भगवम्‌ भगवान्‌ वोले--गौतम | अन्य-यूथिक जो कहतें है, वह मिथ्या ( एकान्त अपूर्ण ) है | मैं यूं कहता हूँ-प्ररूपणा करवा द चार प्रकार के युरुष-जात होते हैं-- १--शीलसम्पन्नः श्रुतसम्पन्न नहीं । २--श्रुतसम्पन्न, शीलसम्पन्न नहीं | इ--शीलसम्पन्न और श्चुतसम्पन्न ] न शीलसम्पन्न श्रौर न श्रुतसम्पन्न । पहला पुर्प-जात रीलसम्पन्न है--उपरत ( पाप से निदत्त) है, किन्तु ्रक्रुतवान्‌ है--त्रविक्ञातघर्मां है, इसलिए वह मोक्ष मागे का देश- आराधक है १] दूसरा श्रुत-सम्पन्न है--विज्ञात्धर्मा है, किन्तु शील सम्पन्न नहीं--उपरत नहीं, इसलिए वह देशविराघक है २। तीसरा शीलवान्‌ भी है ( उपरत भी है ); श्रुतबान्‌ भी है ( विज्ञात्घर्मा भी है ), इसलिए वह सर्व॑-चअ्रराधक है | चौथा शीलवान्‌ भी नहीं है ( उपरत मी नहीं है), श्रुतवान्‌ मी नहीं है ( विज्ञातघर्मा भी नही है ), इसलिए वड सवं विराधक है | इसमे भगवान्‌ ने वताया कि कोरा ज्ञान श्रेयसू की एकांगी आराधना है । कोरा शील भी वैसा ही है। ज्ञान चौर शील दोनों नहीं; वह श्रेयसू की विराधना है; आराधना है ही नहीं | ज्ञान और शील दोनों की संगति दी भ्रेवस्‌ को सर्वांगीण आराधना है |




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