आधुनिक संस्कृत नाटक भाग 2 | Adhunik Sanskrit Natak Bhag 2

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अघ्याय ७३ शलचूडवध शखचूड वध कँ प्रणेता दीनद्विज का प्रादुमदि मसाम म उनीसवी शती बे प्रथम चरण मे हया । दीनद्रिज न शखचूडवध क्यौ रचना १७०५ दक -सवतु तदनुसार ६८०३ ६० म कं ।+ क्वि सन्दिकं वशीय राजा वरफूवन के दारा सम्मानित्त या॥२ नारायण के द्वारा आदिप्ट सुत्रपार न इसका प्रयोग विया था । विष्णु की तीन पलियो--गगा, सरस्वती भौर ल्मी का कलह हमा । उनके परस्पर-द्ाप से गण भौर घरस्वतती को नदी स्प मे मल्यंलोक म खाना पडा भौर लस्मी क वुलसी- परौचा वनना पा । पहले लक्ट्मी वेदवती वनी ! तपस्या करती हुई प्रमी रावण के धधण से भीत वह अग्नि में जल मरी । यृयमध्वज रिवमक्त या धिवाराधनात्मक तपः करते समय तीन युय तक दिव उसके आश्रम ने रह 1* एक वार सुय शिव से मिलने के रिए उस नाघ्ममे भाये1 सूर्ये बपमध्वज पर विगरे, कयोवि उसने सत्वार नहीं क्या 1 सूय ने उसे सोटी खरी सुनाई तो शिव न क्रोघ करके श्रिशूल से सुय को मार डालना चाहा । तव तौ बात्म- रक्षा के लिए सूय अपने पिता काइयप को ल्कर ब्रह्मा की शरण में पहुंचे । असमय ब्रह्मा मी उनके साथ विष्णु के पास पहुंचे । विष्णु ने कहा--मेरी शरण में तुम निमय रहो । शिव वहाँ सूय की दण्ड देने आये तो विष्णु की स्तुति करने लगे । विष्णु के पूछने पर शिव ने कहा कि मेरे आराघक की शाप देने वाले सुप को बस छोड देता हूँ। बयोकि वह आप की दारण में है। अब मेरे मक्त वृपमध्वम वा गया होगा ? विष्णु ने कहा कि इस वैकुण्ठ के भाषे दण्ड मे पृमिवीवे ?० युग वीत गये । भव तो दुपमध्वज के कुल में धमध्वज गौर दुगध्वज हैं । १ शाके तत््वमृनौन्दुभिविगरितेमापाविरमिघ्रमु दा। वाक्यै सस्छरतकेरिम रचितवान्‌ मूदेववर्याप्रणौ ॥ ३४१ २ नान्दी में कहा गया है- साधक वरारजन्मा जयति विमलघी श्रीवृत्ुवक्रनोऽमौ 1 शाप में सरस्वती न कहा कि तुम्हारे स्नान स॒ पापी पाप विसजन करेंगे । वह तुम्हीं में मिलेगा । तुम पापयुक्ता बनोगी ! हरि न शाप का परिमाउन किया यथा, सरस्वती एक कला से मारत की नदी हुई, दूसरी का से सावित्री नामक ब्रह्मा वी पली हुई और तीसरी कला से हरि की सल्निधि में रही । गा एवा से चिव की जटा में गई, दूसरे अश से हरि की सपिधि में और तीसरे से गंगा नदी घनी 1 ४ चचियुममचात्सीत्‌ 1 दद ७




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