प्रवचनरत्नाकर भाग 4 | Pravachanratnakar Bhag 4
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
18 MB
कुल पष्ठ :
402
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रवचन-रत्नाकर
[ भाग ४ |
समयसार गाथा &२
श्रज्ञानादेव क्म प्रभवतीति तात्पयंमाह -
परमप्पाणं कुव्वं श्रप्पाणं पि य परं करितो सो ।
श्रण्णाणमभ्रो जीवो कम्मारं कारगो होदि ।१६२॥
परमात्मानं कू्वन्नात्मानमपि च परं कुवन् सः ।
श्रज्ञानमयो जीवः कर्मणां कारको भवति ॥६२॥
श्रयं किलाज्ञानैनात्मा परात्मनोः परस्परविशेषानिज्ञति सति परमाः
त्मानं कर्व्नात्मानं च परं कुर्वन्स्वयमन्ञानमयीभूतः कमरणां कर्ता प्रति-
श्रब यह् तात्पयं कहते है कि श्रज्ञान से ही कमं उतपन्न होता हैः -
पर को करे निजरूप श्र, निज भ्रात्म को भी पर करे ।
श्रज्ञानमय ये जीव ऐसा, कमं का कारक बने ।॥ ६२॥
गाथार्थः ~ [परम् | जो पर को [श्रात्मानं ] भ्रपनेरूप [कुर्वन्]
करता है [च] श्रौर [भ्रात्मानम् रपि] अपने को भी [परं] पर [वन् |
करता है, [सः] वह [श्रज्ञानमयः जीवः] अज्ञानमय जीव [कमणां]
कर्मो का [कारकः] कर्तां [भवति] होता है ।
टीकाः ~ यह श्रात्मा श्रज्ञानसे श्रपना भ्रौर परका परस्परभेद
(ग्रन्तर) नीं जानता हो; तब वह् पर को श्रपनेरूप श्रौर श्रपने को पर-
रूप करता हुश्रा, स्वयं श्रज्ञानमय होता हुग्रा कर्मों का कर्ता प्रतिभासित
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