प्रवचनरत्नाकर भाग 4 | Pravachanratnakar Bhag 4

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Pravachanratnakar Bhag 4 by कुन्दकुन्द - Kundkund

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रवचन-रत्नाकर [ भाग ४ | समयसार गाथा &२ श्रज्ञानादेव क्म प्रभवतीति तात्पयंमाह - परमप्पाणं कुव्वं श्रप्पाणं पि य परं करितो सो । श्रण्णाणमभ्रो जीवो कम्मारं कारगो होदि ।१६२॥ परमात्मानं कू्वन्नात्मानमपि च परं कुवन्‌ सः । श्रज्ञानमयो जीवः कर्मणां कारको भवति ॥६२॥ श्रयं किलाज्ञानैनात्मा परात्मनोः परस्परविशेषानिज्ञति सति परमाः त्मानं कर्व्नात्मानं च परं कुर्वन्स्वयमन्ञानमयीभूतः कमरणां कर्ता प्रति- श्रब यह्‌ तात्पयं कहते है कि श्रज्ञान से ही कमं उतपन्न होता हैः - पर को करे निजरूप श्र, निज भ्रात्म को भी पर करे । श्रज्ञानमय ये जीव ऐसा, कमं का कारक बने ।॥ ६२॥ गाथार्थः ~ [परम्‌ | जो पर को [श्रात्मानं ] भ्रपनेरूप [कुर्वन्‌] करता है [च] श्रौर [भ्रात्मानम्‌ रपि] अपने को भी [परं] पर [वन्‌ | करता है, [सः] वह [श्रज्ञानमयः जीवः] अज्ञानमय जीव [कमणां] कर्मो का [कारकः] कर्तां [भवति] होता है । टीकाः ~ यह श्रात्मा श्रज्ञानसे श्रपना भ्रौर परका परस्परभेद (ग्रन्तर) नीं जानता हो; तब वह्‌ पर को श्रपनेरूप श्रौर श्रपने को पर- रूप करता हुश्रा, स्वयं श्रज्ञानमय होता हुग्रा कर्मों का कर्ता प्रतिभासित




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