अर्थशास्त्र के आधुनिक सिद्धान्त [संस्करण ३] | Arthashastra Ke Adhunik Siddhant [Ed. 3]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सर्वणास्त्र का स्वरूप तथा क्षेत्र प्‌ अनेक ह । आवभ्यक्तामो कौ बुद्धि अपनी मतुष्टि कै लि निरन्तर प्रयल चाहती है सौर आशिक चेष्टामो का अनन्तर चक्र चलता ही रहता है। यदि आवश्यकताएँ सीमित होती सो उनकी सवुष्टि पर्याप्त साना में हो सकती और आर्थिक प्रयत्न के लिये उद्दीपन नष्ट हो जाता । क्योकि मनुप्य की आवष्यकताएँ असीमित हे अतएव ज़्यादा जरूरी_.और कम्‌ जरूरी आवय्यकताञो मे निमेय करना पडता है। (ख) यथपि आवश्यकताएं असीमित ह तौ भी उनकी तृप्ति के लिये सावन वहत सीमित है। नि सन्देह कुछ प्राकृतिक बस्तुएँ हे जो मनुप्य की भावस्यकतायो की पूति करती है। तो मी अनेक वस्तुएँ जिनकी हमे आवश्यकता है न्यून हे ! यदि सावन असी-' मित होते तो कोई भी आर्थिक समस्या न उठती । परन्तु जैसी हालत के अनुसार समाज के पास स्रोत (16800665) सौमित हं अौर उनका किफायत से उपयोग करना चाहिए। 'दुरुभ' शाब्द यहा पर एक विशेष अर्थ में प्रयोग किया गया है। इस दुर्लभता का सम्बन्ध जरूरियातों से है। दुरलभता का अर्थ निरपेक्ष भाव में नही लेना चाहिए। एक वस्तु थोडी मात्रा मेहो सकती है, किन्तु यदि इसका किसी के लिए कोई उपयोग नहीं है तो हम इसको आर्थिक दृष्टिकोण से दुर्लस नहीं कहेंगे । इस प्रकार, यद्यपि सडे हुए भण्डे ताजो की अपेक्षा कम पाएं जाते हूं, परन्तु आर्थिक रूप में उन्हें दुर्लभ नहीं माना जाता । दूसरी ओर गेहूँ अथवा कोयला जेसी कोई वस्तु ससार मे यदि भारी मात्रा में हो तो भी वह दुर्लभे कही जायेगी, क्योकि माग वस्तु की पूर्ति से भी अधिक है। केवल माता ही नहीं वरन वस्तु की सप्लाई की तुलना में माग यह निक्चय करेगी कि अमुक वस्तु दुलेभ है अथवा चरी । (ग) राचिन्स को परिभाषा के अन्तगतं तीसरी प्रस्तावना यह है कि दुर्कम साधनो के अनेके उपयोग हो सकते हूं । यदि एक वस्तु का एक ही उपयोग हो सकता हो और अन्य कोई नही तो उसके सम्बन्ध में बहुत कम आर्थिक समस्याएं उर्देगी । जब इसका वह उपयोग हो चुकेगा तो यह स्वामित्वहीन वस्तु हो जायेमी मौर इसका कोई आर्थिक महत्त्व नहीं दोगा) तौ भौ, वास्तव में, जिन उपयोगो में कोई वस्तु छाई जा सकती है वह्‌ अनेक अथवा लगभग असीमित हैं। अतएव उस वस्तु की कुल माग लगभग जअतृप्य है । यह बैक- ल्पिंक उपयोग नाना महत्त्व वाले हे जिससे हम उस उपयोग को छाट सके जो एक वस्तु से उठाया जा सके । जव तक ये सव परिस्थित्तिया नही हँ त्व तक कोई आथिक समस्या उत्त नही होगी । केवल साध्यो का वद्धेन जयवा केवल साधनो की दुरभता न तौ एक माधिकं समस्या, ओरन्‌ केवल दुर्भ साधनो कौ वैकल्पिक प्रयोजनीयता उत्पन्न कर सकती है। “परन्तु जब साध्य की प्राप्ति के लिये समय और साघन सीमित तथा वैकल्पिक प्रयोग के योग्य होते , है और साव्य महत्व की दुष्ट से विभेद योग्य, तव व्यवहार अवश्य ही सबरण (5६]6८- ) धा) का खूप धारण कर लेता है।”” अर्थात्‌ इसका एक आर्थिक खूप होता है। राँचिन्स के मतानुसार आर्थिक चेष्टा अनेकं साध्यो कौ पूरा करने के लिये मनुष्य 1. क09ाएड-ेरघप्ताद आते ाछुघीव्टद 9 छिल्ण्छणाएपट ऽधट८€, १.14.




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