सन्यासी और सुंदरी | Sanyasi Aur Sundari
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
142
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)संन्यासी गौर सुन्दरी / १७
क्यों ?' उसने अपनी ओर गवं से निहारा!
चन्द पलो के उपरान्त वह् तुरन्त श्मार करने वैठ ययी ।
भज उसने श्ेगारमे देविका का भी सम्बल लेना उचित नही समझा ।
वह स्वयं बडी चतुराई से अपना श्यंगार कर रही थी जैसे आज के इस
श्यूंगार में एंक रहस्यमय सार निहित है। शीश से लेकर नख तक उसने
बेजोड शूंगार किया ।
उस अनुपम रूप में वह नव परिणीता-सी लगने लगी ।
अपने पति को अपने यौवन पर विभोहित करने के लिए उसने अपनी
कंचुकी को भौर कस लिया था ।
एक वार उसने पुमः दर्पण में देखा ।
यौवन स्वय वोलने लगा था ।
मानिनी कामिनी की भांति वह सभल-सभलकर चरण उठाती शयन-
कक्ष के द्वार पर खड़ी होकर मनु की प्रतीक्षा करने लगी ।
रजनी रानी तारों की चुनरी ओढे अपने मुख चन्द्र को ध्रन-घूघट में
छिपाने की फ्रीडा कर रही थी ।
वातावरण शून्य और शान्त होता जा रहा था ।
पुतलियों पर पलकें-रूपी आवरण वरवस छाता जा रहा था। कभी-
कभी वह निमिप भर के लिए सो भी जाती थी; लेकिन सुप्तावस्था में ऐसे
चौक पडती थी जसे उसकी सुखद निद्रा मे किसी निर्दयी ने जोर का आघात
कर दिया हो ।
निशीथ--वेला मे वह उठी और प्रकोष्ठ में चहलकदमी करने लगी ।
'रह-रह उसके मानस-पटल पर मनु की अलौकिक छवि नाच उठती थी ।
ओर मनु“?
गृह से प्रस्थान करने के पश्चात् उसका रथ सौधा नतकी के विशाल
भवन के समन्त रका ।
नहतेकी वासवदत्ता वातायन मे बैठी-वैठी राज-पथ का आवागमन देख
रही थी । आज उसमे पुप्प-श्दगार कर रखा था 1 रथ के रुकने के क्रम को
देख करके उसने परिचारिका को आज्ञा दी किं वह् सामन्त श्री को सम्मान
हित भीतर ले भाए ओर स्वयं तौरण-दयार की ओर उन्मुख हुयी --उनके 7
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