सन्यासी और सुंदरी | Sanyasi Aur Sundari

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Sanyasi Aur Sundari by यादवेन्द्र शर्मा ' चन्द्र ' - Yadvendra Sharma 'Chandra'

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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संन्यासी गौर सुन्दरी / १७ क्यों ?' उसने अपनी ओर गवं से निहारा! चन्द पलो के उपरान्त वह्‌ तुरन्त श्मार करने वैठ ययी । भज उसने श्ेगारमे देविका का भी सम्बल लेना उचित नही समझा । वह स्वयं बडी चतुराई से अपना श्यंगार कर रही थी जैसे आज के इस श्यूंगार में एंक रहस्यमय सार निहित है। शीश से लेकर नख तक उसने बेजोड शूंगार किया । उस अनुपम रूप में वह नव परिणीता-सी लगने लगी । अपने पति को अपने यौवन पर विभोहित करने के लिए उसने अपनी कंचुकी को भौर कस लिया था । एक वार उसने पुमः दर्पण में देखा । यौवन स्वय वोलने लगा था । मानिनी कामिनी की भांति वह सभल-सभलकर चरण उठाती शयन- कक्ष के द्वार पर खड़ी होकर मनु की प्रतीक्षा करने लगी । रजनी रानी तारों की चुनरी ओढे अपने मुख चन्द्र को ध्रन-घूघट में छिपाने की फ्रीडा कर रही थी । वातावरण शून्य और शान्त होता जा रहा था । पुतलियों पर पलकें-रूपी आवरण वरवस छाता जा रहा था। कभी- कभी वह निमिप भर के लिए सो भी जाती थी; लेकिन सुप्तावस्था में ऐसे चौक पडती थी जसे उसकी सुखद निद्रा मे किसी निर्दयी ने जोर का आघात कर दिया हो । निशीथ--वेला मे वह उठी और प्रकोष्ठ में चहलकदमी करने लगी । 'रह-रह उसके मानस-पटल पर मनु की अलौकिक छवि नाच उठती थी । ओर मनु“? गृह से प्रस्थान करने के पश्चात्‌ उसका रथ सौधा नतकी के विशाल भवन के समन्त रका । नहतेकी वासवदत्ता वातायन मे बैठी-वैठी राज-पथ का आवागमन देख रही थी । आज उसमे पुप्प-श्दगार कर रखा था 1 रथ के रुकने के क्रम को देख करके उसने परिचारिका को आज्ञा दी किं वह्‌ सामन्त श्री को सम्मान हित भीतर ले भाए ओर स्वयं तौरण-दयार की ओर उन्मुख हुयी --उनके 7 री




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