अँधेरे की भूख | Andhere Kii Bhookh

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Andhere Kii Bhookh by रागेय राघव - Ragey Raghav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चुनाँचे खून धोकर हम तीनों श्राग के पाष जाकर बैठ गये श्रौर रोज की तरह धीरे-धीरे बाते करने म लग गये । ं आधी रात हो गई । मेरा बाप नहीं लोटा.। उस रात के सन्नाटे में हमे धनुष की टंकारः सुनाई नहीं दी । भाई ने कहा, “बड़ी देर हो गई । अ्रमी तक दादा क्यों नहीं श्राये ? बात उत्सुकता की थी | हमे काफी कौतूहल था | लेकिन हम यह नहीं समभते ये कि हमारा बाप भी खतरे में पड़ सकता है | श्रधिकसेः शधघिक हमने यही सोचा फि कहीं दूर निकल गया हे । मेरे भाई ने कहा, 'में देखता हूँ । “कहाँ जाओगे ?” बहिन ने पूछा । ष्देखू दादा श्रये या नहीं समल कर जाना । बाहर भेड़िये हैं । मैंने कहा, “तू ठीक कहती है। हम उन्हें मार नही सकेंगे |” माई ने धीरे से दरवाजा खोला मोका शरोर तरन्त बंद करके कहा, पक्के तो कुछ भी नहीं दिखाई देता |” वह आकर फिर हमारे पास आग तापने बैठ गया । मैंने कहा, “राज तो खाना भी नहीं खाया अभी ।” मेरा बाप श्राकर खुद मांस पकाता था श्र तब ही हम खाते थे +. जब बह नहीं रहता था तब दम पहले दिन का मांस खा लेते थे । बहिन ने कहा, “दादा झायेंगे तो उन्हें खाना पका मिलेगा तो खुश हो जायेगे, श्राश्नो हम लोग पकाय । वह बिचारी हर तरह से बाप को खुश करने की कोशिश किया' करती थी । भाई, एक चौकी सी थी; उस पर चढ़ गया और उसने रीछ का मांस उतार दिया । रोज्ञ जितना पक्ता था उतना ही हमने काट लिया और जैसे बाप की देख-रेख मेँ करते ये, वैसे ही उसको पकाने लगे । उसी वक्त सीगी बजने की श्रवा आरै । हमने सुना आवाज बाहर श्र भू०-र (नि 1.9)




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