आधुनिक समीक्षा : कुछ समस्याएँ | Adhunik Samiksha : Kuch Samasyaein
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
164
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दिन्दी-समीक्षा : एक दृष्टि ५
पर समझदार व्यक्ति को श्रग्रह्य हो! फिर क्यों कुछ ईमानदार श्रीर श्रच्छे
साहित्यिक प्रगतिवाद से घबराते श्रौर उसे श्राद्वाका श्रीर सन्देह की दृष्टि से
देखते नज़र श्राते हैं ? श्रौर क्यो ऐसा लगता है कि श्राज हमारी श्रालोचना श्रौर
साहित्य में उलकन श्रौर श्रराजकता-सी फंली हुई है ?
उत्तर में मेरा निवेदन है कि दो कारणों से । एक कारण प्रगतिवादी साहित्य-
दृष्टि की कुछ कमिया है, श्रौर दूसरा प्रगतिवादी श्रालोचको का तर्जे-प्रमल ।
इन दोनो पर हम क्रमसः विचार करेगे 1
पहले हम प्रगतिवाद की मान्यताएं लं । प्रगतिवाद का श्रनुरोध है कि साहित्य
फी विषय-सामग्री सामाजिक जीवन होना चाहिए, वयक्तिक नहीं ; सामाजिक
जीवन का चित्र होना चाहिए, श्र्थात् व्यक्ति के सुख-दुःख एव उन भाचनाश्रो का
जिनका मूल सामाजिक व्यवस्था में है । चुक्लजी ने भी कुछ ऐसा ही कहा था। कितु
शुक्लजी ने वैयक्तिक प्रगीत-काव्य का वहिष्कार नहीं किया, सिफं यह कहा कि ऐसे
काव्य से प्रवन्घ-काव्य श्रेष्ठ होता है । इस दृष्टि से प्रगतिवादी सिद्धान्त श्रधिक
प्रतिरनित है। किन्तु क्या प्रबत्घ-काव्य झावइयक रूप मं गीत-काव्य से श्रेष्ठतर
होता है ? क्या कालिदास का भेघदरुत' शरेष्ठ-काव्य नहीं है ? श्रौर क्या रवीन्द्र
को (मेघनाद वध श्रयवा साकेत के रचियता से श्रावश्यक रूप में छोटा कहना
पड़ेगा ? इसके उत्तर में प्रगतिवादी कहेगा--प्र गीत-काव्य की श्रपेक्षा प्रवन्ध-
काव्य लोकहित का श्रघिक सम्पादन कर सकता है श्रौर इसलिए श्रधिक ग्राह्य
है 1 किन्तु क्या काव्य श्रपनी श्रानन्द वेने फी, श्रस्तित्व प्रसार करने की, जीवन-
यात्रा को सरस-सस्कृत बनाने को शक्ति हारा भी जन-हित का साधन नहीं
करता ? वस्तुस्थिति यह है कि प्रगतिवादी जनहित श्रौर सामाजिकता के बारे
मे कुछ कटर मान्यताएं रखता है श्रौर उनके सम्बन्ध मं दसो फे विचारो एव
चिन्तन-प्रयत्नों फो घोर सन्देह की दृष्टि से देखता है । उसके श्रनूसार सामा-
जिक जीवन क! मूल रूप है भ्र्थक व्यवस्था, श्रौर शोषक-शोषितो का सम्बन्ध !
साहित्य में प्रेम, ईर्ष्या, द्षेष झ्रादि का चित्रण 'हो यह बुरी बात नहीं, बल्कि
श्रनिवायं है; पर इस चित्रण को यह प्रतिफलित करना चाहिए कि इन सब
निकारो के मूल में श्राधिक व्यवस्था श्रौर वर्गों का सम्बन्ध है। साहित्य ही नहीं,
विभिन्न शास्त्रों या विज्ञातों हारा भी प्रगतिवाद उक्त सावर्सवादी सिद्धान्तो का
समर्थन चाहता है । फ्रायड के सिद्धान्तो को लक्ष्य करके डॉ० रामविलाश्च शर्मा
कहते है-”जो मनोविज्ञान समाज को छोडकर व्यक्ति के श्रन्तमंत्त का विहसेषा
करने का प्रयत्न करता है, वह् श्रपने विक्ञान फो पहले से ही श्रवंज्ञानिक फरार
देता है ।” (व्ही, पृष्ठ ६२) ५
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