डायरी के नीरस पृष्ट | Dayri Ke Niras Prashth

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मेरी डायरी के दो नीरस पष्ठ १५ मया | मैंने फिर श्रपने गहन मन के भौतिक चक्रव्यूह के भीतर प्रवेश कर लिया । > >< >< आज श्राकाश एकदम नीले कोँच के समान परिष्कार-परिच्छृन्न है 1 सुनहली धूप से पृथ्वी मनोहर रूप धारण किये है । भील के दोनों तरफ दोनों सड़कों से होकर श्रलवेली खियाँ रज्ञ-विरड्े वन पहनकर श्रा रही हैं तर जा रही हैं । श्र ज शायद कोई उत्सव का दिन है! इघर मेघमुक्त दिवस में प्राकृतिक उत्सव चल रहा है, उधर संसार के नित्य कर्मों से मुक्त दिवस में सांसारिक नर-नारियों का थ्ानंद व्यक्त हो रहा है । मेरी ्रॉँखों के सामने से होकर एक श्रथहीन रज्ञीन स्वप्न की माया झलक रही दै) मृत्यु के इस पार से श्राज श्रनेक दिनों के वाद मुभे जीवन के लिए, रोने की इच्छा हुई है । पर जानता हूँ कि रोना भी स्वप्नमयी माया की तरह ही व्यर्थ है। आज श्रवंकाश पाकर मैं यह सोच रहा हूँ किमैंकौन हूँ? पागल हूँ? यूत हूँ? प्रेतात्मा हूँ ? छाया हूँ? स्वप्न हूँ ? कया हूँ ! मेरी श्रॉलों के सामने संसार के जो ये सब जीव उठते-वैठते हैं, श्राते-जाते हैं, खाते-पीते हैं, प्रतिदिन के सुख-दुम्ख की वेदना श्नन॒भव करते है, उनसे क्यों श्रपनी श्रात्मा का श्रगुमा्र भी संयोग मुभे श्रनुमृत नहीं ह्येता १ सवमभरूठा है { सव मूढा दहै ! ये सव जीव भी सिध्या हैं, मैं मिथ्या हूँ ! दृष्टि का दिन भी श्रस्त्य है श्रौर अराज कौ यह सुनहली धूप भी काल्पनिक है ! जीवन का रज्लीन स्वप्न भी एक भ्रामक माया है । और सृप्यु ? तब क्या केवल एक सष्यु ही सत्य है ! नहीं ! नहीं ! वह भी मेरे लिए सत्य नहीं है ¦ बुनो ! उनो ! हे ग्रसत्य । मेरी झात्मा के चारों शोर प्रतिपल जीवन-सृत्यु के ताने वाने से सायामय जाल वुनते चले जाश्रो ! सोचते-सोचते क्लांति का श्रनुभव कर रहा हूँ । दाँखें कपने लगी हैं । चिर-प्रिय चारपाई में जाकर लेट जाता हूँ । हुक्के की याद श्राती है । कल्याणसिंह को पुकारता हूँ ।




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