श्रीरामकृष्णलीलामृत | Shriramkrishnalilamrit

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गीसमरुष्ण की चेदान्त लाघना षद चठ रही थौ । इतने में अफरमात पचबठी के पेड़ों की डालियों ह्नि जा और पेड पर से एफ बड़ा ऊँचा पूरा भव्य पुरप नीचे उतरा भौर तोतापुरी की ओर एफटरु देखते हुए एकएक पग आराम से रखते रखते पिछकुड उनके समीप आ गया ओर्‌ धूनी की एक ओर जाकर येठ गया। उसे देखकर तोतापुरी ने आध्र्ययुक्त होकर उससे पूछा, “लू सौन हे” उस पुसुप ने उत्तर दिया-- मैं देवगोनि का हूँ, भैरव हूँ, इस देवस्थान की रक्षा बरने के छिए मैं सदा इती दक्ष पर रहता हूँ।” तोतापुरी तिलमात्र भी मिचछिति नहीं हुए और उससे वेढे, “वाह ! ठीक हे। जो तू है वही मैं मी हूँ । चू भी प्र का एक रूप है और मैं भी ब्रह्म का ही एक रूप हूँ । गा, यहँँ। बैठ और ध्यान वर | ” यह सुनकर बह पुर्ण हसा ओर देखते ही देखते अददय हो गया और मानों घुछ हुआ ही न हो इस प्रकार निश्चिन्त वृति से शनितिके पाथ तोतापुरी ने भी अपना ध्यान प्रारम्भ किया दूसरे दिन सवेरे श्रीरामडप्ण के आते ही उन्होंने उनसे रात की सारी घटना बताई जिसे सुनकर श्रीरामरप्ण बोले, “हीं, वह यहाँ रहता अद्प है, मुझे भी वई वार उसका दर्शन हुआ है, कभी कमी तो मुझे भरिप्य में होते वाठी बातें भी बताता है। एफ याए पचरी की सारी जपीन बाखूदखने (एण वलाः ऋणटुध्या९) के छिए खेने का प्रन कम्यनी कर्‌ रही धी, यह सुनकर मुदे चैन नही पडती थी । पपार्‌ के सरे वौसदल से दूर्‌ हकर एक कोने में माता का दान्तिपूरक चिन्तन कसे के दिए अच्छी जगह मिठ गई है, पर यदि इसे कम्पनी ढे ढेगी तो ऐसी जगह फिर व मिछेगी --इमी चिन्ता में मुझे दुद नहीं सूझता था । रासमणि की




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