प्रभंजन - चरित | Prabhanjan Chrit
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
1 MB
कुल पष्ठ :
54
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about घनश्यामदास जैन - Ghanashyamdas Jain
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दूसरा सगे | न जद
विरक्त हो हम छोगोंनि तफका शरण छिया हैं। इनमेंसे किप्के टिए
कौन कारण हुआ ! यह वात आगे सट हो जायगी ।
अब मैं ( श्रीवद्धन ) अपने तपका कारण सुनाता हूँ! मैंने
वढभीपुरमें रहकर सोमश्रीका चर तो स्वयं देखा है। पनामें
छुख्तणाका चरित सुना है । प्रयागम दूतीका चरित अदाने
जाना है तथा रहब सुभद्राके चरितका स्वयं अनुभव किया
है। सार यह है कि इन चारोंने ही बढ़े २ दुर्घट कार्योकों मी
सहसा करके दिखाया है|
पटना नगते राजा नंदिवद्धेन थे। उनकी रानीका नाम पुनंदरा
ओर पत्रक नाम ध्रव था। श्रवन दे तीनृद्धि प । ह
छि ह्नि डे प्मयमे पवद छिपियी सीख ठीं थीं
पर वे म्टेच्छ भापाकी छिपिकों नहीं जानते थे एक समय
यदनेश ( म्टेच्छाना ) ने नंदिवद्धेन महाराजकें पाप्त एक
पत्र भेनना। उप्की दपि स्ेच्छमापाकी थी । ढेख़वाह-फा
छनेवाहेने उप पत्रको सक्र नंदन महारानके सामने सस
दिया । नंविव्ध श्रव्धन आदि प्तमीने उप्त प्रको पक्र
प्रयल किया; पर वह किसीसे भी न एड़ा गया । उस पमब प
शुभ कर्मफे उदयसे श्रीव्धकके बहुत वित्त मव हये मे भरे
... निकठ वहमीपुर पहुँचे | वहीं गरगनामधारी एक अध्यापकके यहीं
रहने छो। नत्र पेँच दिन बीत गये तन उन्हेनि उपाध्याये
कहा-मैं आपके प्रमादसे यवन छिपिको नानना चाहता हूँ। उस
दीनग्रणी गे श्रीवद्धूनकों पात्र समझकर उनका कहना स्वीकार
कर लिया श्र मी गतीः किय कते सिपि पोर
User Reviews
No Reviews | Add Yours...