प्रभंजन - चरित | Prabhanjan Chrit

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Prabhanjan Chrit  by घनश्यामदास जैन - Ghanashyamdas Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दूसरा सगे | न जद विरक्त हो हम छोगोंनि तफका शरण छिया हैं। इनमेंसे किप्के टिए कौन कारण हुआ ! यह वात आगे सट हो जायगी । अब मैं ( श्रीवद्धन ) अपने तपका कारण सुनाता हूँ! मैंने वढभीपुरमें रहकर सोमश्रीका चर तो स्वयं देखा है। पनामें छुख्तणाका चरित सुना है । प्रयागम दूतीका चरित अदाने जाना है तथा रहब सुभद्राके चरितका स्वयं अनुभव किया है। सार यह है कि इन चारोंने ही बढ़े २ दुर्घट कार्योकों मी सहसा करके दिखाया है| पटना नगते राजा नंदिवद्धेन थे। उनकी रानीका नाम पुनंदरा ओर पत्रक नाम ध्रव था। श्रवन दे तीनृद्धि प । ह छि ह्नि डे प्मयमे पवद छिपियी सीख ठीं थीं पर वे म्टेच्छ भापाकी छिपिकों नहीं जानते थे एक समय यदनेश ( म्टेच्छाना ) ने नंदिवद्धेन महाराजकें पाप्त एक पत्र भेनना। उप्की दपि स्ेच्छमापाकी थी । ढेख़वाह-फा छनेवाहेने उप पत्रको सक्र नंदन महारानके सामने सस दिया । नंविव्ध श्रव्धन आदि प्तमीने उप्त प्रको पक्र प्रयल किया; पर वह किसीसे भी न एड़ा गया । उस पमब प शुभ कर्मफे उदयसे श्रीव्धकके बहुत वित्त मव हये मे भरे ... निकठ वहमीपुर पहुँचे | वहीं गरगनामधारी एक अध्यापकके यहीं रहने छो। नत्र पेँच दिन बीत गये तन उन्हेनि उपाध्याये कहा-मैं आपके प्रमादसे यवन छिपिको नानना चाहता हूँ। उस दीनग्रणी गे श्रीवद्धूनकों पात्र समझकर उनका कहना स्वीकार कर लिया श्र मी गतीः किय कते सिपि पोर




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