प्रवचनसार प्रवचन (भाग 3,4,5) | Pravachansar Pravachan (bhag 3,4,5)
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
28 MB
कुल पष्ठ :
448
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)गाया ५४. 4
एक ज्ञानस्वभाव श्रनुभवमे श्राए तो वहं सत्य लगा श्रौरं उस ्ननुभवमे विकल्प किया तो वह
सत्य नहीं लगेगा । उस श्रनुभवको यदि वचनसे कहे तो वह् सत्य बात नही बैठेगी । यह
चीज पुद्गलद्रव्योके भी ऐसी ही है, केवल श्रात्मद्रव्यके ही तही। जैसे कोई कहे कि मिश्री
तुमने जो खाई उसका स्वाद समभादो । परन्तु मिश्रीका स्वाद समभाने मे झसमर्थ हो
जाग्रोगे । कहोगे कि बडी मीटी चीज है, गन्नेसे बनती है । गन्नेमे से इतना मैल निकालते
तो गन्ने में जो मीठा निर्मल रस रह जाता है उससे प्रधिक मीठा गुड बनता है । गुडमेसे भी
मैल निकालकर णवक्र बनाते जो गुडसे भी ज्यादा मीठी होती है-। उस शक्करको भी श्रौर
स्वच्छ बनाकर मिश्च बनाते तो वह शक््करसे भी ज्यादा मीठी होती है । यह तो बताया कि
वह् मिश्री इतनी ग्रधिक मीरीं होती है, परन्तु सुनने वाले को मिश्रीके मिठासकी सचाईका
श्रसुभव नहीं हो पाया श्रौर स्वयं जिसने उसे खाई तो वे उसके रसका श्रचुभव कर लेंगे,
परन्तु समझा नहीं सकेंगे । इसी प्रकारसे ज्ञानके श्रचुभवकों वचनसे कहे तो वह सही नहीं
बेठेगा। कि |
गुखोकी द्रव्याश्रयता-- सारे गुणोका एक समूह्, ऐसा एक जो विड है वही तो एक
द्रव्य है । गुर द्रव्यके झ्राधारमे है । द्रव्यवी जगहसे देखो तो द्रव्य है, द्रव्यका परिणामन द्रव्य
को यह तरंग है, श्रौर तरगसे सब गुण विद्यमान है । श्रात्मा जानता है तो ज्ञानगुण, देखता
है इसलिए दर्शनगुरण, रागादिसे रहित है इसलिए 'वारित्रगुण निराकुलताका भाव है इसलिए
सुखगुण, श्रमिक है इसलिए श्रमूतिक गुण श्रनुभव होते है, ये श्रात्माकी शक्तियाँ है, जिनके
परिणामस्वरूप श्रत्माकी तरग होती है, उन्हे कहते है शक्तियां या गुण । इन सब गुणोमे से
किसी भी एक गुणका निर्माण ही सारे गुणोकी वजहसे होता है । यदि उसमेसे श्रौर गुणोको
भिन्न मानें तो एक गुण भी श्नपना स्वरूप कायम नही रख सकना । परन्तु एक गुणका भी
श्रस्य कोई गुण आधार नहीं है । श्राघार होगा तो उनमे श्रभेद सिद्ध नहीं होगा ।
श्रत्मामे ज्ञानका प्राधान्य--देखो भैया 1 श्रमृतचन्द सूरि महाराजकों ज्ञानसे इतना
पक्षपात हो गया कि सुखका वर्णन करनेकी बात कह रह थे, परन्तु उनको तो ज्ञानकी ही धुन
है, श्रानन्दका वर्णन वरते हुए उसमे भी ज्ञानको रख दिया, ऐसा उनके पक्ष लग गया । कुछ
भी वर्शन करें तो बीचमे ज्ञानका वर्णन करने लग जाते, यह उनमे पक्षपात हो गया । सब
जगह उन्होने ज्ञानको खोस दिया । तो श्रमृतचन्द श्राचाये ज्ञानगुणके ही पक्षमे इतने क्यो
आए ? एक हृष्टिसि यदि देखे तो इन सब गुणोमे राजा एक ज्ञानगुरा है, श्रौर ऐसा मालुन
होता कि इस ज्ञानकी रक्षाके लिए हो वे सारे गुण है । ज्ञानमे यदि अमतिकपना न श्राये तो
यह ज्ञान मूतिक बन बैठेगा और वह श्रतीड्रिय ज्ञान ही नहीं रहेगा । इस प्रकार ज्ञानके स्व-
रूपकी रक्षाके लिए श्रमूर्त गुण श्राया । जानकी सत्ता रख देतेके लिए ही उसमे सृकष्म गरा
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