श्री अमितगतिश्रावकाचार | Shri AmitgatiSrawakachaar
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
450
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रथम परिच्छेद । १९.
अर्थ--पुरुपकै ये सुखकारी सव ही पदार्थ धर्म बिना न होय हे,
जैसे फर पएरटनि करि सहित वृक्ष जडरहित निश्वयकरि कितने काठ
तिष्ठे ? कष्ट भी रै नाही ॥ २७ ॥
मोक्षावसानस्थ सुखस्य पात्र भर्व॑ति भव्या भवभीरवो ये ।
भवेति भक्त्या जिननाथव्ृ्ं धर्म निराखादमद्पणं ते ।॥ २८॥
अर्थ-- ज संसारते भय्मीत भव्यजीव भिननाथ करि उपदेश्या
जो धर्मं ताहि भक्तिसदहित सेवै है, ते मोक्षपर्यत सुखके भाजन होय
हैं । कैसा है धर्म, नाही है इंद्रियजनित विपयनिका आस्वाद जाविपै,
अर रागादि दूपन करे रहित ऐसे ।
भावार्थ--जे पुरुप विपयरहित निर्दोप धर्म सेवे है ते चक्रवत्तीः
इंद्र अहर्मिद्र मोक्षपर्यत सुख पावे है ॥ २८ ॥
लक्ष्मीं विधातुं सकलां समर्थं सुदुठेभं विश्वजनीनमेनं ।
परीक्ष्य गृह्णति विचारदक्षाः सुबणंबद्वंचनभीतचिताः ॥ २९ ॥
अथ--समस्त स्क्ष्मीके रचर्नक्र समर्थं, अर महादुकंभ, अर सम~
स्तका हित उपजावनें वाला ऐसा जो धर्म ताहि विचार विपै प्रवीन.
अर् ठिगायवे करि भयभीत हैं चित्त जिनके ऐसे पुरुष है ते सुवर्णकी
ज्यों परीक्षा करि प्रहण करे है ।
माबार्थ--धर्म धर्म सब ही कहै हैं परंतु परीक्षाप्रधान है ते.
असाधारण छक्षणतै परखि प्रहण करं दै ॥ २९ ॥
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खगापवगोमलसोख्यखानि धर्म ग्रहीतुं परमो विवेकः ।
सदा विधेयो हदये प्रचिदधेस्त तं रतनमिवापदोपषं ॥ ३० ॥
अर्थ-- स्वर्ग मोक्षके निम सुखनिकीं खानि जो धर्म ताहि ग्रहण
करनैकौ पंडित जन करि हृदयविषै परम विवेक सदा करने योग्य है ।-
वहुरि ज्ञानवान तिस धर्मकौ निर्दोष रतनकी ज्यों ग्रहण करे है ॥३०॥.
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