श्री अमितगतिश्रावकाचार | Shri AmitgatiSrawakachaar

Shri AmitgatiSrawakachaar by पण्डित भागचन्द्र जी - Pandit Bhagachandra Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथम परिच्छेद । १९. अर्थ--पुरुपकै ये सुखकारी सव ही पदार्थ धर्म बिना न होय हे, जैसे फर पएरटनि करि सहित वृक्ष जडरहित निश्वयकरि कितने काठ तिष्ठे ? कष्ट भी रै नाही ॥ २७ ॥ मोक्षावसानस्थ सुखस्य पात्र भर्व॑ति भव्या भवभीरवो ये । भवेति भक्त्या जिननाथव्ृ्ं धर्म निराखादमद्पणं ते ।॥ २८॥ अर्थ-- ज संसारते भय्मीत भव्यजीव भिननाथ करि उपदेश्या जो धर्मं ताहि भक्तिसदहित सेवै है, ते मोक्षपर्यत सुखके भाजन होय हैं । कैसा है धर्म, नाही है इंद्रियजनित विपयनिका आस्वाद जाविपै, अर रागादि दूपन करे रहित ऐसे । भावार्थ--जे पुरुप विपयरहित निर्दोप धर्म सेवे है ते चक्रवत्तीः इंद्र अहर्मिद्र मोक्षपर्यत सुख पावे है ॥ २८ ॥ लक्ष्मीं विधातुं सकलां समर्थं सुदुठेभं विश्वजनीनमेनं । परीक्ष्य गृह्णति विचारदक्षाः सुबणंबद्वंचनभीतचिताः ॥ २९ ॥ अथ--समस्त स्क्ष्मीके रचर्नक्र समर्थं, अर महादुकंभ, अर सम~ स्तका हित उपजावनें वाला ऐसा जो धर्म ताहि विचार विपै प्रवीन. अर्‌ ठिगायवे करि भयभीत हैं चित्त जिनके ऐसे पुरुष है ते सुवर्णकी ज्यों परीक्षा करि प्रहण करे है । माबार्थ--धर्म धर्म सब ही कहै हैं परंतु परीक्षाप्रधान है ते. असाधारण छक्षणतै परखि प्रहण करं दै ॥ २९ ॥ ¢ ¢ न ¢ ड # ७, खगापवगोमलसोख्यखानि धर्म ग्रहीतुं परमो विवेकः । सदा विधेयो हदये प्रचिदधेस्त तं रतनमिवापदोपषं ॥ ३० ॥ अर्थ-- स्वर्ग मोक्षके निम सुखनिकीं खानि जो धर्म ताहि ग्रहण करनैकौ पंडित जन करि हृदयविषै परम विवेक सदा करने योग्य है ।- वहुरि ज्ञानवान तिस धर्मकौ निर्दोष रतनकी ज्यों ग्रहण करे है ॥३०॥.




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