ऋग्वेद पर व्याख्यान भाग-1 | Rigveda Par Vyakhyan Bhag-1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( 8 ) 'तेनवैशकलःपञ्चमेऽरानितन्यातिष्ठन्याीनिषटति शाकलेनतुष्टुवानः १३।३। ९८५ ॥ थति सर्पा सोम (साम ?२।६।२।७। ऋचा मे शक्ल ऋृषि ने मुक यक्तम्‌ श्रमुक् कम क्रिया । श्रनः यह मन्त्र दाकल साम ध्या । यही शकल शाकल्य क्रामिनादे। दस प्रसास भौ शाकल शब्द से किसी ऋषि विशेष के मिज नाम को समकना ठीक नह्टीं । घस्तुत: भ्रन्तिम परिणाम यहीं है कि दाकलसंदिता, शाकद्य के पदपाठ से हो कड़ाई जानें लगी थी । झाकल कोई व्यक्ति हो वा नहा, उस के प्रचचन से इस श्ग्वेद दो दाकलसटदिता कदापि नहीं कहा, गया इतिदिक | दाखा-प्रकरणी में जो ऋक प्रातिशाण्य के पाठ दिये गये है वे या तो चोौखस्वा सस्करणा से हू या मेक्समूलग के संस्करण से । पूर्वावस्थाम पलो पौर प्रप्ठों का पता दिया गया है, गोर उत्त- रावस्था में काछी में सुजाड़ूः रखा है । पक शोर यात में वचय कह देता हूं । संसार में वेद-वियार करन वाले तीन भागों में धिमक्त हो सकते हैं । (१) ्रार्य्यावर्सीय इतिहास फ्रे मध्यम-कालीन वाङ्मय के अनुसार वेद को लगाने वाले सज्जन (२) पाश्चात्य लेखक छोर (३) स्वामी दयानन्द सरस्वती की दाली का अमुकरणा करने वाले । इन मे सखे प्रथम संख्यान्वगन पुराने ढदड़ के पशिडत तो वेदाध्ययन को बहुत काल से प्राय: छाड़ चुके है, झतः उनके विषय में कुख कइना निष्फल है । द्वितीय श्रणी के लोग र्यात्‌ पाश्चात्य ज्ेखक इस समय. चेद-चिचार में बहुत व्यग्र हैं, पर वे भी पक ही दृष्टि से देख रहे हैं झोर अपने थविपस्तियों के लेखों का कभी ध्यान नहीं करते । कव्‌ाचित्‌ यदी कारणा है कि प्राचीन सभ्यता-झनशिश् कुछ जनों को कोड्‌ के मन्य स्र पलदेशीय विद्धान्‌ शन्हं पक्तपाती समभेत ह ।




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