साम्राज्य का वैभव | Samrajya Ka Vaibhav

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Samrajya Ka Vaibhav by रांगेय राघव - Rangeya Raghav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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थ साम्राज्य का वैभव औरतों के साथ टोखी बनाकर जातो थी, टोखी बनाकर लौटती थी । लोग उनकी एक-सी लॉँगदार कत्थइं साड़ी, उनके भारी पोरे कड़े भौर काम के वज़न से डगमगाइई 'ठँगड़ी चाढ को देखकर उन पर हँसते थे, किन्तु वे आपस में हूँसती थीं; बाबुओं को दूर ही दूर से ठलचाई आंखों से देखती थीं; बबुआइनों पर डाह्द करती थीं; काठी-काली गंदी बद्बूदार..« | चंपा बालक को उठाकर कुदती फिर झोंपड़े की तरफ़ आ रही थी। भानंदी जोर से कष्ट उठी--चंपाबाई को चाट ठग गई है बज़ार की, (कं में जायेगी टी क्यों बह ..-जाय तो भिरे छः आने रोजीना, छः छाने 1... च॑पाने द्रवाज्ते परष्टी से सुना ओर वष्ट ककंश स्वर से चिा उठी--चाट ढग गई दै मुझे और मीठ के मरदों में भी तो में दी जाती हूँ। मेरे तो बाप ने यही किया, माँ ने यह्दी किया, में भी यही करती रही हूँ और करती रहूँगी, में कोइ बेठ नहीं, गधा नहीं, सदा की रीति चली आई है । बस्ती में अब नहीं वेसे आदमी जेसे पहले थे । दो पेसा क्या हाथ में आ गया है, घमंड करने चली है ठुमको ! गधा नष्ट, तो कुत्ता बनकर रहना, क्य। अच्छी बात कही है, मेरी सास ने ।› आनन्दी क्रोध से पुकार खटी । (तो बेटी, हम कत्ता हैं, तो तरे बाप भौ कृत्ता थे, भौर तेरी महतारी भी कतिया थी.“ आनन्दी वाप कत्ता थे' सुनकर तो चुप रही । मगर माँ का कुतिया होना घुनकर वह एकदम हाथ-पेर चाकर दहाडने .र्गी-रोड़ बजार- बजार डोखे है । भगवान्‌ ने एक बजार तो बेडा दिया है पापिन, दूसरे से भी चेन नह्दीं ढेने देती हे । ं और हो गई... = रग्धु चुपचाप सुनता रहा । | | ३) दूरे दिन सुष्ट भदत के सुताबिक आनन्दी ने ताक पर हारय




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